फिल्म समीक्षा मसान
नीरज घेवन के निर्देशन में बनी 'मसान' ज़ेहन में कई सवालों को छोड़ जाती है। यूं तो 'मसान' शमशान को कहा जाता है। वह स्थल जहां अंतिम संस्कार किया जाता है।
बनारस में भी ऐसा ही एक घाट है, जहां पर धू-धू करती चिताओं को जलते देख, शव के साथ आने वाले लोग कहते हैं कि 'मुक्ति' मिल गई। बेजान शरीर को मुक्ति मिल गई, लेकिन जीवित लोगों के सपनों की चिताएं हर रोज़ जलती है, यह भी बात है।
नीरज और वरुण ग्रोवर ने बड़ी बारीक़ी से मरने के बाद शरीर, और जीते जी सपनों की मुक्ति को जोड़ा है। दोनों ने मिल बनारस का जो स्केच खींचा है, वो देखने को नहीं मिलता। एकदम ख़ालिस काशी परदे पर नज़र आता है। डॉयलाग्स बिलकुल बनावटी नहीं हैं। एकदम पक्के बनारसी हैं।
कलाकार: ऋचा चड्ढा, संजय मिश्रा, श्वेता त्रिपाठी 'विकी कौशलनिर्देशक: नीरज घेवन
रेटिंग: 4
अवधिः 115 मिनट
कहानी
फ़िल्म में दो कहानियां दिखाई गई हैं। अंत में दोनों कहानियाें का संगम हो जाता है। पहली कहानी है देवी की। देवी का किरदार ऋचा चड्डा ने निभाया है। देवी अपने प्रेमी पीयूष के साथ होटल के एक कमरे में होती हैं, तभी पुलिस छापा मार देती है।
'थोड़ा ज़्यादा कमाने' वाली पुलिस के हत्थे ये दोनों चढ़ जाते हैं और फिर देवी के पीयूष की मृत्यु हो जाती है। इस हादसे से देवी और उसके पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) की ज़िंदगी में भूचाल आ जाता है। देवी'छोटे शहर 'और अपने भीतर की ग्लानि से मुक्त होने का फ़ैसला करती है।
वहीं दूसरी कहानी है 'डोम कम्यूनिटी' के लड़के दीपक यानी विक्की कौशल और ब्राह्मण जाति की शालू यानी श्वेता त्रिपाठी की। वैसे तो दीपक सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है, लेकिन उसके परिवार वाले मृत शरीर को जलाने का कार्य करते हैं।
दोनों की मुलाक़ात होती है और फिर इश्क़ हो जाता है। दोनों का मिलना नामुमक़िन रहता है, फिर भी सपने देखने लगते हैं। जाति में बंधे इस समाज से मुक्ति के सपने संजोने लगते हैं दोनों। और फिर एक दिन वो चकनाचूर हो जाता है।
समीक्षा
नीरज ने जज्बातों के ज्वर पर सवार हो, बहुत सरलता से मुद्दों को छू गए हैं। बनारस को जिस तरह परदे पर साकार करते हैं, वो क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। एक दृश्य से दूसरे तक के सफ़र को इतनी बारीक़ी के साथ पिरोया गया है कि लगता ही नहीं कि आप परदे पर कुछ देख रहे हैं। तदात्म स्थापित करवा देती है।
दुष्यंत कुमार की पक्तियों को 'तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।' फ़िल्म में अलग-अलग मायनों के लिए कई बार प्रयोग किया गया है।
वरुण ने डायलॉग में फ़िल्मी बनाने से परहेज किया है, उन्होंने उसे बनारसी रंग में गढ़ा है। फ़िल्म में कोई भी किरदार नकली नहीं लगते, सब ख़ालिस लगते हैं। हालांकि, फ़िल्म थोड़ी सुस्त रफ़्तार से भागती है, लेकिन यक़ीन मानिए भावनाओं के ज्वार आपको कुर्सी से बांधे रखते हैं।
जहां तक इस फ़िल्म के गीतों की बात करें, तो उसे भी वरुण ने ही लिखा है। आइटम नंबर्स के दौर में सुकून वाले गीत सुनकर आपको अच्छा लगेगा।
सुकून और गहराई को छूती, 'मन कस्तूरी रे ... जग दस्तूरी रे ... बात हुई ना पूरी रे'। इन दिनों ऐसे गीतों की वाकई ज़रूरत है। में गीतों ऐसे गीतों की ज़रूरत बॉलीवुड में बहुत ज़्यादा है।
बॉलीवुड के बने-बनाए खांचे को तोड़ती इस फ़िल्म में सभी किरदारों की अहमियत देखते ही बनती है। यहां तक की मामूली सा किरदार 'झोंटा', जो नदी में कूद कर सिक्के निकालता है, वो भी ग़ैरज़रूरी नहीं लगता।
ऋचा ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है। मजबूर पिता बने संजय ने अभिनय के नए आयाम गढ़ दिए हैं। लेकिन दीपक बने विक्की ने सबसे ज़्यादा प्रभावित किया। फ़िल्म में एक पल भी यह नहीं लगा कि विक्की अभिनय कर रहे हैं
क्यों देखें
महज़ कॉन्स फ़िल्म फेस्टीवल में झंडा बुलंद करने के नाते इसे न देखने जाए, न ही इसलिए क्योंकि फ़िल्म के ख़त्म होने के बाद भी दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट पांच मिनट तक हॉल में गुंजती रही, इसलिए ही जाएं। बल्कि इसलिए जाएं क्योंकि यह सरलता से गहराई की बात कह जाती है। इस तरह की फ़िल्में नहीं बनती, जो
'फ़िल्मी' न लगे।
इस फ़िल्म का एक डॉयलॉग है, जो ज़ेहन में बैठ गया, 'संगम दो बार जाना चाहिए- एक बार अकेले, और दूसरी बार किसी के साथ।'
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