ट्रेन के नीचे सो जाते थे ओम पुरी
दमदार आवाज़ और बेहतरीन अभिनय के संगम को भारतीय सिने जगत ओम पुरी के नाम से जानता है। समानांतर सिनेमा से कर्मशियल फिल्म्स में अपना लोहा मनवाया है। वे उन चंद कलाकरों में शुमार हैं, जिनकी अदायगी का हॉलीवुड भी कायल है। आज ओम पुरी अपना 64 वां जन्मदिन मना रहे हैं ... आइए पढ़ते हैं उनके जिंदगी का सफ़रनामा ....
मुंबई। पद्मश्री से सम्मानित ओम राजेश पुरी को वर्सटाइल एक्टर कहा जाता है। 18 अक्टूबर 1951 को पटियाला में जन्मे ओम पुरी को अपना मुक़ाम हासिल करने में कड़ी मेहनत करनी पड़ी।
फ़िल्मी करियर की शुरुआत मराठी नाटक पर आधारित फ़िल्म 'घसीटाराम कोतवाल' से की। इसके बाद बॉलीवुड के साथ हॉलीवुड में भी अपनी अदाकारी के झंडे बुलंद किए।
शुरुआत
ओम पुरी का बचपन काफ़ी कष्ट और संघर्षो के बीच कटा। एक वक़्त तो ऐसा आया कि उन्हें परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ढाबे पर काम करने लगे थे। तक़लीफ़ों का दौर तो शायद ओम साहब का शुरू ही हुआ था। उस ढाबे के मालिक ने उन पर चोरी का इल्ज़ाम लगाकर नौकरी से निकाल दिया।
उनका घर रेलवे यार्ड के पीछे था, तो अक्सर वे घर से भाग कर रेलवे यार्ड में किसी ट्रेन के नीचे सो जाते थे। दरअसल, ओमपुरी को ट्रेन से काफ़ी लगाव था। वे बड़े होकर ट्रेन ड्रायवर बनना चाहते थे।
खै़र, कुछ दिनों के बाद वे अपनी आगे की पढ़ाई के लिए ननिहाल चले आए्। यहां उनकी रुचि अभिनय की तरह जागी। इसके बाद स्कूल में होने वाले नाटकों में वे सक्रिय रहने लगे। यह सिलसिला खालसा कॉलेज में दाखिला लेने के बाद भी बदस्तूर ज़ारी रहा।
इसी दौरान ओम पुरी ने एक वकील के यहां अपने खर्चे पूरे करने के लिए मुंशी के रूप में काम करना शुरू कर दिया। अब काम है, तो आपको नियमित रहना ही पड़ेगा।
लेकिन, अभिनय का नशा भी कोई मामूली बात नहीं है। एक दिन नाटक में हिस्सा लेने के चक्कर में वे वहां काम पर न जा सके, नतीज़तन नौकरी हाथ से चली गई।
जब इस बात की जानकारी कॉलेज के प्रिंसीपल को हुई, तो उन्होंने ओम पुरी को कैमिस्ट्री लैब में सहायक की नौकरी दे दी। इस दौरान ओमपुरी कॉलेज में हो रहे नाटकों में हिस्सा लेते रहे।
यहीं उनकी मुलाक़ात हरपाल और नीना तिवाना से हुई, जिनके सहयोग से वह पंजाब कला मंच नामक नाट्य संस्था से जुड़ गए।
लगभग तीन वर्ष तक पंजाब कला मंच से जुड़े रहने के बाद ओमपुरी ने दिल्ली में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में दाखिला ले लिया। यहां अभिनेता नसीरुद्दीन शाह उनके सहपाठी थे।
ओम पुरी उस वक़्त शर्मीले थे। उनमें शर्म और झिझक की एक वजह यह थी उनका अंग्रेज़ी में हाथ तंग होना। हॉलीवुड तक में अपने अभिनय की पताका फहराने वाले ओम को अंग्रेजी नहीं आती थी। लेकिन अपने लगन की बदौलत न सिर्फ़ अभिनय में पारंगत हुए, बल्कि अंग्रेजी पर भी पकड़ बना ली।
उनके सहपाठी रहे अभिनेता नसीरुद्दीन शाह कहते हैं कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में ओम ने ख़ुद को बहुत परिपक्व किया। जबकि हम सबने पूरा समय सिर्फ़ गवाया।
इसके बाद उन्होंने पुणे फ़िल्म संस्थान में दाखिला लिया। वर्ष 1976 में यहां से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद ओमपुरी ने लगभग डेढ़ वर्ष तक एक स्टूडियों में अभिनय की शिक्षा भी दी। बाद में ओमपुरी ने अपने निजी थिएटर ग्रुप 'मजमा' की स्थापना की।
चल पड़ी गाड़ी
अपने सिने करियर की शुरुआत वर्ष 1976 प्रदर्शित में इन्होंने फ़िल्म 'घासीराम कोतवाल' से की। मराठी नाटक पर बनी इस फ़िल्म में ओम पुरी घसीटाराम के किरदार में थे।
इसके बाद उन्होंने गोधूलि, भूमिका, भूख, शायद, सांच को आंच नहीं जैसी कई आर्ट फ़िल्मों में अभिनय किया, जिसका उन्हें कोई ख़ास फायदा नहीं हुआ।
वर्ष 1980 में प्रदर्शित फ़िल्म 'आक्रोश' ओम पुरी के सिने करियर की पहली हिट फ़िल्म साबित हुई। गोविन्द निहलानी के निर्देशन में बनी इस फ़िल्म में ओम पुरी ने ऐसे व्यक्ति का किरदार निभाया था, जिस पर पत्नी की हत्या का आरोप लगाया जाता है। इस फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के चलते उन्हें सर्वश्रेष्ठ सहायक अभिनेता के फ़िल्म फेयर पुरस्कार भी मिला था।
वर्ष 1983 में प्रदर्शित फ़िल्म 'अर्धसत्य' ओमपुरी के सिने करियर की महत्वपूर्ण फिल्मों में गिनी जाती है। फ़िल्म में ओमपुरी ने एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका निभाई थी।
फ़िल्म में अपने विद्रोही तेवर के कारण ओमपुरी दर्शकों के बीच काफी सराहे गए। फ़िल्म में अपने दमदार अभिनय के लिए वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित भी हुए।
अस्सी के दशक के अंतिम में वे कमर्शियल सिनेमा की ओर मुड़ गए। हिंदी के अलावा उन्होंने पंजाबी फ़िल्मों में अभिनय किया।
दर्शकों की पसंद को ध्यान में रखते हुए नब्बे के दशक में ओमपुरी ने छोटे पर्दे पर भी नज़र आए। 'कक्काजी कहिन' में अपने हास्य अभिनय से दर्शकों को दीवाना बना दिया। साथ ही 'भारत एक खोज' में वे एंकर की तरह भी नज़र आए।
फिल्मोग्राफ़ी
ओमपुरी ने अपने चार दशक लंबे सिने करियर में लगभग 200 फ़िल्मों में काम किया है। उल्लेखनीय फ़िल्मों में 'अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है', 'स्पर्श', 'कलयुग', 'विजेता', 'गांधी', 'मंडी', 'डिस्को डांसर', 'गिद्धद्व होली', 'पार्टी', 'मिर्च मसाला ',' कर्मयोद्धा ',' द्रोहकाल ',' कृष्णा ',' माचिस ',' घातक ',' गुप्त ',' आस्था ',' चाची 420 ',' चाइना गेट ',' पुकार ',' हेराफेरी ',' कुरूक्षेत्र ',' पिता ',' देव ',' युवा ',' हंगामा ',' मालामाल वीकली ',' सिंह इज किंग ',' बोलो राम 'आदि शुमार हैं। वहीं हॉलीवुड में 'ईस्ट इज ईस्ट', 'माई सन द फैनेटिक', 'द पैरोल ऑफिसर', 'सिटी ऑफ जॉय', 'वोल्फ', 'द घोस्ट एंड द डार्कनेस', 'चार्ली विल्सन वॉर' सरीखी फ़िल्मों से अपने अभिनय का जादू चलाया है।
मशहूर डायलॉग
यूं तो ये किसी फ़िल्म में नज़र भर आ जाए, तो अपनी मौजूदगी यादगार बना देते हैं। आइए उनके कुछ दिलचस्प डायलॉग पढ़े ....
- द्रोपदी तेरी अकेले की नहीं, हम सब शेयरहोल्डर हैं - जाने भी दो यारो।
- शराबी तो शराबी की मदद करेगा -जाने भी दो यारो।
- ये मूंछ तेरे बाप के खेत पर नहीं उगाई है - चुप चुप के
- हमारे धंधे में आंसू के साथ कोई रिश्ता नहीं होता - मरते दम तक
- खून जब खौलता है तो मौत का तांडव होता है - मरते दम तक
- मैं ऐसे लोकतंत्र में विश्वास नहीं करता ... जो गरीबों की इज्जत करना नहीं जानता - चक्रव्यूह
- जिस दिन पुलिस की वर्दी का साथ पकड़ा, उस दिन डर का साथ छोड़ दिया -अग्निपथ
- यकीन को हमेशा वक़्त के पीछे चलना चाहिए ... आगे नहीं -कुर्बान
- मुझे कोई नहीं मार सकता ... न आगे से, न पीछे से ... न दाएं से, न बाएं से ... न आदमी, न जानवर ... न अस्त्र, न शस्त्र - नरसिम्हा
हर जूती यह सोचती है कि वह पगड़ी बन सकती है..मगर जूती की किस्मत है कि उसे पैरों तले रौंदा जाए ... और पगड़ी का हक है कि उसे सर पर रखा जाए -नरसिम्हा
- मैं जब भी करता हूं, इन्साफ ही करता हूं -नरसिम्हा
- समाज की गंदगी साफ़ करने का कीड़ा है मेरे अंदर -गुप्त
- एक वक्त पर मैं सिर्फ एक ही काम करता हूं ... जब पीता हूं तो खूब पीता हूं ... और जब ड्यूटी करता हूं तो सिर्फ ड्यूटी करता हूं -गुप्त
- एक सच्चा आदमी ही अपने सर पर गोली खाने के लिए तैयार हो सकता है -गुप्त
- जैसे ही मैंने उसकी कनपटी पर यह गनपट्टी रखी, उसका चेहरा बिना दूध की चाय जैसा पड़ गया - आवारा पागल दीवाना
- हीरा, क्या गाय थी गांव में, 10 लीटर दूध देती थी। जब ठुमक-ठुमक कर चलती थी तो सारे गांव के बैल उस पर मरते थे। उसका स्मारक बनाना - आवारा पागल दीवाना।
- मरने से पहले मेरे बाल डाई कर देना, आई वांट टू डाई यंग - आवारा, पागल दीवाना।
-अगर मैं मर गया, मैं तुझे जिंदा नहीं छोडूंगा - आवारा, पागल दीवाना।
- सुना है आजकल छोटी-छोटी लड़कियों को हम जैसे बड़े लोग पसंद हैं ... मेरे साथ ऐसा पहली बार हो रहा है - मेरे बाप पहले आप
- ये बगीचे इतने बड़े क्यों होते हैं, एक फूल-एक फब्बारा ... बात खतम ... इतने ताम-झाम की क्या जरूरत - मेरे बाप पहले आप
- कुंडली से यारी तो क्या करेगी फौजदारी - मेरे बाप पहले आप
- मजहब इंसानों के लिए बनता है, मजहब के लिए इंसान नहीं बनते - ओह माई गॉड
पुरस्कारों की लड़ी
1981- फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ आक्रोश के लिए सहायक अभिनेता का पुरस्कार
1982- आरोहण के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार
1984 अर्ध सत्य के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार
1984 कार्लोवी अर्ध सत्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का वैरी
1998-मेरा बेटा कट्टरपंथी के लिए ब्रसेल्स में अंतरर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता
1990-पद्मश्री, भारत का चौथा सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार
1998- सिने कला के लिए असाधारण योगदान के लिए ग्रांड प्रिक्स स्पेशल डेस मॉन्ट्रियल विश्व फ़िल्म महोत्सव
2004 ब्रिटिश फ़िल्म उद्योग के लिए सेवाओं के लिए ब्रिटिश साम्राज्य के आदेश के मानद अधिकारी
2009 फ़िल्म फेयर लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार
2015- प्रयाग के लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव अन्तर्राष्ट्रीय
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