जब कैफ़ी साहब हुए 'अनलकी'
इश्क़ में डूबे दीवानों के दिल की आवाज़ हो या देश भक्ति से भरे जज़्बात या फिर ज़िन्दगी का फलसफा। हर मौके़ के लिए उन्होंने नज़्में और गीत दिए हैं। हम बात कर रहे हैं मशहूर शायर कैफ़ी आज़मी की। रूमानी शायर कैफ़ी आज़मी ने सिर्फ लेखन में ही नहीं अभिनय में हाथ आजमाए हैं। उन्होंने सईद मिर्ज़ा की साल 1997 में आई फिल्म 'नसीम' में अभिनय किया। यह किरदार पहले दिलीप कुमार निभाने वाले थे। कैफ़ी साहब सिर्फ़ 'मॉन्ट ब्लॉक पेन' से लिखते थे। उनकी पेन की सर्विसिंग न्यूयॉर्क के 'फाउंटेन हॉस्पिटल' में होती थी। जब उनकी मौत हुई, तो उनके पास 18 मॉन्ट ब्लॉक पेन थे। ऐसे ही और भी दिलचस्प बातें हैं कैफ़ी साहब के बारे में, तो देर क्यों आइए झांकते हैं उनकी ज़िन्दगी में ...
मुंबई। हिन्दी सिने जगत के मशहूर शायर और गीतकार कैफ़ी आज़मी की आज सालगिरह है। इनका जन्म 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश मे आजमगढ़ जिले के मिजवां गांव में हुआ।
जमींदार पिता के पुत्र कैफ़ी का असली नाम सैयद अतहर हुसैन रिजवी था। वैसे आपको बता दें कि यह तारीख़ दरअसल, कैफ़ी साहब के दोस्त ने रखी है। हुआ यह कि जब कैफ़ी साहब की वालिदा (मां) से कैफ़ी आज़मी की जन्मतिथी पूछी गई, तो उन्हें याद नहीं थी। ऐसे में कैफ़ी साहब के दोस्त और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सुखदेव ने 14 तारीख उनकी जन्मतिथी मुर्करर कर दी।
उम्र के जिस पड़ाव पर बच्चे खेलने में व्यस्त रहा करते थे, कैफ़ी उस उम्र में मुशायरों में शरीक़ हुआ करते थे। इन मुशायरों में उन्हें दाद भी काफी मिला करती थी। कई लोगों को मुग़ालता था कि कैफ़ी अपने भाई की लिखी ग़ज़ल सुना रहे हैं।
लोगों की इस बेयक़ीनी पर उन्हें कोफ्त होती थी, लेकिन वो कर भी क्या सकते थे। ग्यारह साल की उम्र में उन्होंने जो पहली ग़ज़ल गांव की महफिल में सुनाई। उसी ग़ज़ल को आगे चलकर बेग़म अख्तर ने आवाज़ दी।
उस ग़ज़ल का मतला है -
"इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े, हंसने से हो सुकून न रोने से कल पड़े।"
शुरुआत
उत्तर प्रदेश में आजमगढ़ के एक जमींदार के घर जन्में कैफ़ी आज़मी ने कई उतार चढ़ाव के बाद खुद को स्थापित किया। एक समय ऐसा भी था, जब उन्होंने कापनुर के एक जूता बनाने की फैक्ट्री में काम किया।
मुंबई में 40 रुपए मासिक पगार से शुरू करके पृथ्वी थिएटर के सामने एक आलीशान बंगले तक की यात्रा बेहद रोमांचक रही। यह सफर उनके ज़िदादिली का नमूना है। मुशायरों के स्टेज के साथ फ़िल्मों में उनकी गीतकारी सब जगह सिर्फ़ वे ही वे नुमाया थे। लेकिन इन सबके बावज़ूद एक ऐसा दौर भी था, जब उन्हें लोगों ने 'बदनसीब' तक का तमगा दे दिया था।
आइए हम आपको ले चलते हैं उनके बचपन में। अब ज़मींदार के घर जन्म लेना, मतलब तालीम भी आला दर्जे की ही होनी चाहिए। सो, कैफ़ी साहब के वालिद (पिता) ने उनका दाख़िला लखनऊ के मशहूर सेमिनरी सुल्तान उल मदारिया में करा दिया। विद्रोही स्वाभाव के कैफ़ी साहब को उच्च शिक्षा नहीं चाहिए थी।
सेमिनरी की कुव्यवस्था को देखकर कैफ़ी आज़मी ने छात्र संघ का गठित किया और अपनी मांगों को पूरी करवाने के लिए हड़ताल पर जाने की अपील करने लगे। उनकी अपील छात्रों ने सुनी भी और वे सब हड़ताल पर चले गए। यह हड़ताल तक़रीबन डेढ़ साल चली। इस हड़ताल की वजह से सेमिनरी प्रशासन उनसे बेहद नाराज़ हुआ और हड़ताल ख़त्म होने के तुरंत बाद, उन्हें सेमिनरी से निकाल दिया गया।
जहां इस हड़ताल की वजह से उन्हें सेमिनरी ने उन्हें निकाल दिया गया, वहीं उन पर कुछ प्रगतिशील लेखकों की नज़र भी पड़ी। इस उभरते हुए कवि को हर मुमकिन मदद करने का वादा भी किया। खै़र, सेमिनरी से निष्काशन के बाद उन्होंने लखनऊ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तालीम हासिल की। उर्दू के साथ अरबी और फ़ारसी पर भी अपनी पकड़ मजबूत की।
इनकी प्रतिभा के बारे में हम पहले ही जिक्र कर चुके हैं। शुरू में यह इश्क़ में डूबी शायरियां किया करते थे, लेकिन बाद में उनकी संगत प्रगतिशील विचारों से हो गई। इसके बाद वे कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। कैफ़ी आज़मी पार्टी के काम के लिए मुम्बई आए। यहीं वे इंडियन पीपुल्स थियेटर के संपर्क में आए और आगे वो उसके अध्यक्ष भी बने।
वे पूरी तरह से कम्युनिस्ट पार्टी के लिए समर्पित थे। पार्टी के कार्यों में ही व्यस्त रहा करते थे। वे कम्युनिस्ट पार्टी के पेपर 'कौमी जंग' में लिखते थे और ग्रासरूट लेवल पर मज़दूर और किसानों के साथ पार्टी का काम भी करते थे। इसके लिए पार्टी उनको 40 रुपए महीने की तनख्वाह भी देती थी। इन्हीं से वे अपना घर चलाया करते थे।
निकाह
रूमानियत से भरे शायर कैफ़ी साहब की इश्क़ की दास्तां भी कम फ़िल्मी नहीं है। जब मुशायरे के लिए वे मंच संभाला करते थे, तो आह करके हसीनाओं का दिल मुंह को आ जाया करता था। आए भी क्यों न! मर्दाना क़द-ओ-कामत और किसी फिल्मी अदाकार की सी सूरत, उतार चढ़ाव के साथ शायरी कहने का अंदाज़।
ख़ैर, ऐसे ही एक मुशायरे में उनको उनकी शरीक़-ए-हयात यानी पत्नी भी मिल गई। दरअसल, हुआ ये कि हैदराबाद में वे एक मुशायरे में हिस्सा लेने गए। मंच पर जाते ही अपनी मशहूर नज़्म 'औरत' सुनाने लगे ...
"उठ मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे,
क़द्र अब तक तेरी तारीख़ ने जानी ही नहीं,
तुझमें शोले भी हैं बस अश्क़ फिशानी ही नहीं,
तू हक़ीकत भी है दिलचस्प कहानी ही नहीं,
तेरी हस्ती भी है इक चीज़ जवानी ही नहीं,
अपनी तारीख़ का उन्वान बदलना है तुझे,
उठ मेरी जान ... "
वहीं श्रोताओं में बैठी एक लड़की अपनी सहेलियों से कहने लगी, "कैसा बदतमीज़ शायर है, वह 'उठ' कह रहा है। 'उठिए' नहीं कह सकता क्या? इसे तो अदब का अलिफ़-बे भी नहीं आता। कौन इसके साथ उठकर जाने को तैयार होगा? "
इसके बाद तंज कसती हुए वो लड़की पंक्ति दोहराती है, 'मेरी जान मेरे साथ ही चलना है तुझे .. उठ'
लेकिन शाम तो शुरू ही हुई थी, बातें अभी और होनी बाक़ी थीं। श्रोताओं के तालियों की गड़गड़ाहट और मुंह से निकलने वाली वाह वाह ने, उस लड़की के दिल में कैफ़ी के लिए अलग ही जगह बना दी। कुछ देर पहले तक जो लड़की कैफ़ी को बेअदब कह रही थी, अब वो उनके साथ पूरी उम्र गुज़ारने का फैसला कर चुकी थी।
फैसला मुक्कमल जामा पहनने तक अधूरा ही रहता है। उस लड़की के ज़िन्दगी के इस बड़े फैसले पर मां-बाप और सहेलियों तक को ऐतराज था। सभी को लगता था कि एक शायर की तारीफ़ की जा सकती है, लेकिन उसके साथ ज़िन्दगी बसर करना मुमकिन नहीं है। शायर भी ऐसा कि उसे महीने में 40 रुपए वेतन मिलती है। वो जिद्दी लड़की मानी नहीं और वह कुछ दिनों में अपने पिता को मजबूर कर हैदराबाद से मुंबई ले आई।
बहुत मान-मनौव्वल के बाद हैदराबाद से शुरू इश्क़ का फसाना निकाह के अंजाम तक पहुंच गया। सज्जाद ज़हीर के घर में कहानीकार इस्मत चुग़तई, फ़िल्म निर्देशक शाहिद लतीफ़, शायर अली सरदार जाफ़री, अंग्रेज़ी के लेखक मुल्कराज आनंद की मौजूदगी में कैफ़ी आज़मी और वो लड़की शौक़त आज़मी बन गई। दोनों पत्नी-पत्नी के बंधन में बंध गए। सरदार जाफ़री ने दुल्हन को कैफी का पहला संग्रह 'आख़िरी शब' तोहफ़े में दिया। इसके पहले पेज पर कैफ़ी के शब्द थे, शीन (उर्दू लिपि का अक्षर) के नाम। मैं तन्हा अपने फ़न को आखिरी शब तक ला चुका हूं तुम आ जाओ तो सहर हो जाए।
यह 'शीन' अब कैफी आजमी की विधवा हैं। वह शौकत ख़ान से शौकत आज़मी बनीं थीं, उनके नाम का पहला अक्षर है 'शीन'।
मुश्क़िलों भरा दौर
शादी के बाद कैफ़ी ने बहुत मुश्क़िलों का सामना किया। वे अपने गांव चले गए, वहीं उनका बड़ा बेटा पैदा हुआ। लेकिन एक साल का भी नहीं हो पाया कि उसकी मौत हो गई। इसके बाद शौक़त आज़मी दोबारा उम्मीद से हुईं। इस बार शबाना उनके गर्भ में आईं। यह ख़बर कम्युनिस्ट पार्टी को मिलते ही, उन लोगों ने एबार्शन कराने का फैसला सुना दिया। दरअसल, कैफ़ी अंडरग्राउंड थे, और सबको चिंता थी कि बच्चे के खर्च के लिए पैसे कहां से आएंगे। शौकत अपनी मां के पास हैदराबाद चली गईं। वहीं शबाना आज़मी का जन्म हुआ। शबाना बॉलीवुड अभिनेत्री और गीतकार - पटकथा लेखक जावेद अख्तर की पत्नी हैं।
खै़र, उस वक़्त की मुफलिसी के दौर में इस्मत चुगतई और उनेक पति शाहिद लतीफ़ ने शैक़त को एक हज़ार रुपए भिजवाए। लेकिन यह कोई खैरात के पैसे नहीं थे, बल्क़ि कैफ़ी साहब के दो गानों का इस्तेमाल शाहिद लतीफ़ ने किया था, तो बतौर मेहनताना भिजवाया था।
फिल्मीनामा
कैफ़ी आज़मी के फिल्मी करियर की शुरुआत शबाना की दस्तक से ही शुरू हो गई थी। बीवी शौकत आज़मी को हैदराबाद जो एक हज़ार रुपए इस्मत चुगतई और शाहिद लतीफ़ ने भेजे थे, वो उनकी फिल्म के दो गाने लिखने की क़ीमत थी।
लेकिन कैफ़ी ने शुरू में इन्हें लिखने से मना कर दिया था, वजह थी कि उन्हें तो फिल्मों के गाने लिखने ही नहीं आते। कम्युनिस्ट पार्टी की हमदर्द और 'प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन' की मेंबर इस्मत चुगतई और उनके पति शाहिद लतीफ ने समझाया कि तुम गाने की फ़िक्र मत करो। तुम इस बात की फ़िक्र करो कि तुम्हारी बीवी बच्चे से है और उस बच्चे की सेहत ठीक होनी चाहिए।
इस तरह कैफ़ी आज़मी ने साल 1951 में अपना पहला फिल्मी गीत फिल्म 'बुज़दिल' के लिए लिखा- 'रोते-रोते बदल गई रात'। इसके बाद फिल्मी तरानों को लिखने का सिलसिला साल- दर- साल चलता रहा।
भारत-पाकिस्तान के बंटवारे को लेकर जितनी फिल्में आज तक बनी हैं, उनमें 'गरम हवा' को आज भी सर्वोत्कृष्ट फिल्म का दर्जा हासिल है। इस फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद सब कैफ़ी साहब ने लिखे थे। इसी फिल्म के लिए उन्हें तीन तीन फिल्म फेयर अवॉर्ड भी मिले। पटकथा, संवाद पर बेस्ट फ़िल्म फेयर अवार्ड के साथ ही कैफ़ी को 'गरम हवा' पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।
हिट गाने और फ्लॉप फिल्में
उनको पहला बड़ा ब्रेक साल 1959 में फिल्म 'काग़ज के फूल' में मिला। फिल्मकार गुरुदत्त और कैफ़ी आज़मी की मुलाक़ात अबरार अल्वी ने करवाई थी। दोनों में बहुत जल्दी दोस्ती भी हो गई। सिने जगत में काम मिलने के बारे में कैफ़ी साहब ने कहा था, "उस जमाने में फिल्मों में गाने लिखना एक अजीब ही चीज थी।
आम तौर पर पहले ट्यून बनती थी। उसके बाद उसमें शब्द पिरोए जाते थे। ये ठीक ऐसे ही था कि पहले आपने क़ब्र खोद ली, फिर उसमें मुर्दे को फिट करने की कोशिश करें। तो कभी मुर्दे का पैर बाहर रहता था, तो कभी कोई अंग। मेरे बारे में फिल्मकारों को यकीन हो गया कि ये मुर्दे ठीक गाड़ लेता है, इसलिए मुझे काम मिलने लगा। "
कैफ़ी आज़मी 'काग़ज के फूल' का मशहूर गाना 'वक्त ने किया क्या हंसीं सितम ..' के बनने के बारे में बड़ी ही दिलचस्प बात कही थी। उन्होंने कहा था कि ये यूं ही बन गया था।
एस डी बर्मन और कैफ़ी आजमी ने यूं ही यह गाना बना लिया था, जो गुरूदत्त को बेहद पसंद आया। उस गाने के लिए फ़िल्म में कोई सिचुएशन नहीं थी, लेकिन गुरूदत्त ने कहा कि ये गाना मुझे दे दो। इसे मैं सिचुएशन में फिट कर दूंगा।
लेकिन आज यदि कोई यह फिल्म देखे, तो ऐसा लगता है कि वह गाना उसी सिचुएशन के लिए बनाया गया है। कैफ़ी साहब के गाने बेइंतेहा मशहूर हुए, लेकिन फिल्म कामयाब नहीं हुई। गुरूदत्त डिप्रेशन में चले गए। उसके बाद कैफ़ी साहब के पास 'शोला और शबनम' फिल्म आई। उसके गाने बहुत मशहूर हुए।
जाने क्या ढूंढती हैं ये आंखें मुझमें और जीत ही लेंगे बाजी हम-तुम, लेकिन फिर फिल्म नहीं चली। फिर 'अपना हाथ जगन्नाथ' आई। एक के बाद एक कैफ़ी साहब की काफी फिल्में आईं और सबके गाने मशहूर, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर एक भी फिल्म नहीं चली।
'शमा' ज़रूर एक फिल्म थी, जिसमें सुरैया थीं, उसके गाने मशहूर हुए और वह फिल्म भी चली, लेकिन ज़्यादातर जिन फिल्मों में इन्होंने गाने लिखे, वह नहीं चलीं। फिर फिल्म इंडस्ट्री ने इनसे पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया और लोग यह बात कहने लगे कि कैफ़ी साहब लिखते तो बहुत अच्छा हैं, लेकिन ये 'अनलकी' हैं।
इस माहौल में चेतन आनंद एक दिन कैफ़ी साहब के घर आए। उन्होंने कहा कि कैफ़ी साहब, बहुत दिनों के बाद मैं एक फिल्म बना रहा हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी फिल्म के गाने आप लिखें। कैफ़ी साहब ने कहा कि मुझे इस वक़्त काम की बहुत ज़रूरत है और आपके साथ काम करना मेरे लिए बहुत बड़ी बात है, लेकिन लोग कहते हैं कि मेरे सितारे गर्दिश में हैं। चेतन आनंद ने कहा कि मेरे बारे में भी लोग यही कहते हैं।
मैं मनहूस समझा जाता हूं। चलिए, क्या पता दो निगेटिव मिलकर एक पॉजिटिव बन जाएं। आप इस बात की फ़िक्र न करें कि लोग क्या कहते हैं। इसके बाद 'कर चले हम फ़िदा जाने तन साथियों ..' गाना बना। हक़ीक़त (1964) फिल्म के तमाम गाने और वह पिक्चर बहुत बड़ी हिट हुई। उसके बाद कैफ़ी साहब का कामयाब दौर शुरू हुआ। चेतन आनंद साहब की तमाम फिल्मों वो लिखने लगे, जिसके गाने बहुत मशहूर हुए।
बनाया इतिहास
साल 1970 में आई 'हीर रांझा' में तो उन्होंने इतिहास ही रच दिया था। उन्होंने पूरी फ़िल्म शायरी में लिखी। हिन्दी सिनेमा के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ। हर संवाद में शायरी है। इस फिल्म पर कैफ़ी साहब ने बहुत मेहनत की थी। वो रात-रात भर जाग कर लिखा करते थे।
उन्हें हाई ब्लप्रेशर था और सिगरेट भी बहुत पीते थे। इसी दौरान उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर पैरालसिस हो गया। उसके बाद फिर एक नया दौर शुरू हुआ। नए फ़िल्ममेकर्स कैफ़ी साहब की तरफ आकर्षित होने लगे। उनमें चेतन आनंद के बेटे केतन आनंद थे।
उनकी फिल्म 'टूटे खिलौने' के गाने उन्होंने लिखे। इसी बीच में 'सत्यकाम', 'अनुपमा', 'दिल की सुनो दुनिया वालो' बनी। ऋषिकेष मुखर्जी के साथ भी उन्होंने काम किया। 'अर्थ' के गाने बहुत लोकप्रिय हुए और फिल्म भी चली।
पुरस्कार
- राष्ट्रीस पुरसकार पद्म श्री से सम्मानित हैं।
- 1975 कैफ़ी आज़मी को 'आवारा सज़्दे' पर साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किए गए।
- 1970 सात हिन्दुस्तानी फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
- 1975 गरम हवा फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ वार्ता फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार