येसुदास इकलौता गायक, जिसे 7 राष्ट्रीय पुरस्कार मिले
'वॉयस ऑफ गॉड' कहे जाने वाले कट्टासेरी जोसेफ येसुदास की इच्छा थी कि वे 'गुरुवायुर मंदिर' में बैठ कर कृष्ण स्तुति करें। लेकिन मंदिर के नियमों के चलते, उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिल सका। अपनी इस पीड़ा को येसुदास ने मलयालम गीत 'गुरुवायुर अम्बला नादयिल' से ज़ाहिर की। इस गीत को सुनकर मलयाली श्रोता रो पड़े। 'येसु दा' का संघर्ष संगीत सीखने से लेकर खुद को साबित करने तक के सफर में हर कदम पर रहा। उम्र के 77 वें साल में प्रवेश कर रहे येसु दा की ज़िन्दगी में आइए और क़रीब से झांकते हैं।
मुंबई। 'गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा', 'सुरमई अखियों में', 'दिल के टुकड़े-टुकड़े करके', 'जानेमन-जानेमन तेरे दो नयन', 'चांद जैसे मुखड़े पे' सरीखे गानों को अमर करने वाले येसुदास (जे येसुदास) किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं।
लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब उनकी प्रतिभा को ही नकार दिया गया था। चेन्नई के संगीत निर्देशक ने उनकी आवाज़ को 'बेकार' कहते हुए कहा कि 'इस आवाज़ में दम नहीं है'। यहां तक कि आकाशवाणी त्रिवेंद्रम ने उनकी आवाज़ को प्रसारण के लायक नहीं समझा। इस बुरे दौर को अपनी सहनशीलता और पिता के सपनों के बूते वे झेल गए।
हिन्दी के अलावा मलयालम, तमिल, कन्नड़, तेलुगू, बंगाली, गुजराती, उड़िया, मराठी, पंजाबी, संस्कृत, रूसी और अरबी भाषाओं में भी गीतों को अपनी सुरीली आवाज़ देने वाले येसुदास का जन्म 10 जनवरी 1940 में कोचीन (केरल) में हुआ।
वे इकलौते ऐसे गायक हैं, जिन्हें सर्वश्रेष्ठ गायन के लिए सात राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। वे सिर्फ़ गायन तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि दक्षिण भारतीय भाषाओं में कई फ़िल्में भी बनाई हैं। उन फिल्मों में 'वडाक्कुम नाथम', 'मधुचंद्रलेखा' और 'पट्टनाथिल सुंदरन' सबसे ऊपर हैं।
परिवार में उनकी पत्नी प्रभा और तीन पुत्र विनोद, विजय और विशाल हैं। दूसरे बेटे विजय येसुदास एक संगीतकार हैं, जिन्हें वर्ष 2007 तथा 2013 में सर्वश्रेष्ठ पुरुष गायक के तौर पर 'केरल राज्य फिल्म अवॉर्ड' मिला था।
वो दौर संघर्ष का
मंझे हुए मंचीय कलाकार और गायक ऑगस्टाइन जोसेफ और एलिसकुट्टी की सबसे बड़ी संतान येसुदास। ऑगस्टाइन हर हाल में अपने बड़े बेटे येसुदास को प्लेबैक सिंगर बनाना चाहते थे। पार्श्वगायक बनाना चाहते थे।येसुदास के पिता जब अपने रचनात्मक करियर के शीर्ष पर थे, तो कोच्चि के उनके घर में दोस्तों और प्रशंसकों का जमावड़ा लगा रहा था। लेकिन बुरे दौर की आमद होते ही लोगों ने उनसे किनारा शुरू कर दिया।
फिर दोस्तों के फेहरिस्त में कुछ ऐसे नाम भी थे, जो कभी कभार मदद के लिए आगे आ जाते थे। शान -ओ - शौक़त देखने के बाद ग़रीबी के दिन रात भी छोटे येसु के खाते में दर्ज हुए।
खिलौनों से खेलने की उम्र में उनके सिर पर पिता ने अपनी इच्छाओं का लक्ष्य रख दिया था। अपने पिता के इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की।
ईसाई होकर संगीत की शिक्षा लेने के लिए उन्हें कई बार ताने भी सुनने पड़े। उनसे कहा गया कि ईसाई होकर कर्नाटक संगीत क्यों सीख रहे हो। इन बातों को अनसुना कर वे आगे बढते रहे। फिर एक समय भी आया, जब वे अपने 'आर.एल.वी. संगीत अकादमी 'की फ़ीस भी बमुश्किल चुका पाते थे।
अपनी आवाज़ के लिए भी कई बार सुनना पड़ा। एक बार चेन्नई के संगीत निर्देशक ने उनसे कहा, "तुम्हारी आवाज़ बेकार है। 'कोई दम नहीं है', कुछ और क्यों नहीं देखते।
"इसके अलावा ए.आई.आर. त्रिवेन्द्रम ने उनकी आवाज़ को प्रसारण के लायक नहीं समझा। लेकिन अपने धुन के पक्के यसु दा ने हार नहीं मानी और अपने सपने को पा ही लिया।
फ़िल्मी सफर की शुरुआत
अपने 50 साल के गायिकी करियर में उन्होंने तक़बरीन 14 भाषाओं में 70,000 से भी अधिक गीत गाए हैं। यहां तक कि एक दिन में उन्होंने 16 अलग-अलग भाषा के गाने एक दिन में ही रिकॉर्ड करने का भी कारनामा किया है।"एक जात, एक धर्म, एक ईश्वर" आदि नारायण गुरु के इस कथन को अपने जीवन का मन्त्र मानने वाले येसुदास को पहला मौक़ा साल 1961 में बनी फिल्म 'कलापदुक्कल' में मिला।
शुरू में उनकी शास्त्रीय अंदाज़ की सरल गायकी को बहुत सी नकारात्मक टिप्पणियों का सामना करना पड़ा, लेकिन येसुदास ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। नतीजतन संगीत प्रेमियों ने उन्हें सिर आंखों पर बिठाया।
भाषा कभी भी उनके राह का रोड़ा नहीं बनी।
दक्षिण के सिनेमा में अपनी सुरीली आवाज़ का जादू बिखेरने के बाद येसुदास ने बॉलीवुड की ओर कदम बढ़ाया। हिन्दी सिने जगत में उन्हें पहला मौका फिल्म 'जय जवान जय किसान' के लिए मिला।लेकिन पहले रिलीज हुई फिल्म 'छोटी सी बात'। उन्होंने 70 के दशक के सबसे मशहूर अभिनेताओं के लिए अपनी आवाज़ दी। इनमें अमिताभ बच्चन, अमोल पालेकर और जितेन्द्र शामिल हैं।
कामयाबी
येसुदास के जिक्र के बिना मलयालम फिल्म संगीत अधूरा है, लेकिन हिन्दी सिनेमा का संगीत भी बिना उनके नाम के पूरा नहीं होता। उन्होंने हिन्दी में उनका काम बेमिसाल है। सलिल दा ने उन्हें सबसे पहले फिल्म 'आनंद महल' में काम दिया। ये फिल्म नहीं चली, पर गीत मशहूर हुए, जैसे- "आ आ रे मितवा"।फिर मशहूर संगीतकार और गीतकार रविन्द्र जैन के निर्देशन में उन्होंने साल 1976 में आई सुपरहिट हिन्दी फिल्म 'चितचोर' के गीत गाये।
इस फिल्म के संगीत ने लोगों के दिलों में येसुदास के लिए एक ख़ास जगह बना दी। 'चितचोर' का गीत "गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा, मैं तो गया मारा" जिसने भी सुना, वह येसुदास का दीवाना हो गया। इस गीत की रचना करने वाले रविन्द्र जैन भी येसुदास की आवाज़ के मुरीद हो गए। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि "अगर उन्हें आंखें मिलेंगी तो वे सबसे पहले येसुदास को देखना चाहेंगे।"
सम्मान तथा पुरस्कार1. पद्म श्री - 1975
2. पद्म भूषण - 2002
3. राष्ट्रीय पुरस्कार (7 बार) - सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
4. आंध्र प्रदेश राज्य फिल्म अवॉर्ड (5 बार) - सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
5. कर्नाटक राज्य फिल्म अवॉर्ड (3 बार) - सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
6. केरल राज्य फिल्म अवॉर्ड (26 बार) - सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
7. तमिलनाडु राज्य फिल्म अवॉर्ड (5 बार) - सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
8. पश्चिम बंगाल राज्य फिल्म अवॉर्ड (5 बार) - सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक
9. राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान - 1991-92