हिंदी सिने जगत की खलनायिकी के ‘जीवन’

कभी रिफ्लेक्टर से अभिनेता-अभिनेत्रियों के चेहरे पर रोशनी डालने वाले ओंकार नाथ धर को आज हम अभिनेता जीवन के नाम से जानते हैं। उन्होंने ‘नारदमुनी’ के किरदार को जिस शिद्दत से निभाया था, शायद खुद नारद भी उनसे झेंप जाएं। पर्दे पर धूर्त, चालाक, छल से भरा, कपटी खलनायक के रूप में जाने जाने वाले जीवन वक़्त के पाबंद और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। 

अभिनेता जीवन
मुंबई। साल 1933-34 की बात है। कश्मीर से एक अठारह साल का लड़का अपनी जेब में कुल जमा 26 रुपए लेकर मुंबई आ गया। उसे फिल्मों में काम करना था।

वो ऐसे परिवार से ताल्लुक़ रखता था, जहां फिल्मों में काम करना ‘निचले’ दर्ज़े का काम कहा जाता था। आख़िर, उस लड़के के दादा जी अविभाजित भारत के एक सूबे के गवर्नर जो ठहरे। गिलगिट, जो अब पाकिस्तान में है। गिलगिल-बालतिस्तान के गवर्नर का पोता, फिल्मों में काम करने की ज़िद लेकर मायानगरी आ गया। 

24 भाई-बहनों वाले उस लड़के के माता-पिता दोनों ही इस दुनिया में नहीं थे। उसे कुछ अलग करना था। अपना नाम बनाना था। उसे पता था कि उसको किस दिशा में प्रयत्न करना है। आखिरकार वो मुंबई आ पहुंचा। 

काम की तलाश शुरू हुई और काम भी मिल गया, लेकिन वो काम था रिफ्लेक्टर थामने का। वो लड़का एक अन्य लड़के के साथ मिलकर रिफ्लेक्टर पकड़ने का काम करने लगा। 

कश्मीर से भागा अच्छे घर का लड़का ही आगे चल कर ‘जीवन’ के नाम से जाना गया। वहीं जो जीवन के साथ दूसरा लड़का, जो रिफ्लेक्टर पकड़ता था, वो था मशहूर कैमरामैन द्वारका दिवेचा। द्वारका दिवेचा ने ‘शोले’ जैसी कई फिल्मों में बतौर कैमरामेन काम किया है। 

ख़ैर, एक दिन जिस स्टूडियो में यह दोनों रिफ्लेक्टर बॉय हुआ करते थे, उसके निर्माता मोहन सिन्हा ने दोनों को बुलाया। मोहन सिन्हा फिल्म ‘रजनीगंधा’ फेम अदाकारा विद्या सिन्हा के दादा जी थे। मोहन सिन्हा ने दोनों लड़कों को अपने कंपाउन्ड में देखा था। दोनों की ही कद काठी अच्छी थी। 

अचानक एक दिन मोहन सिन्हा ने उन दोनों में से जीवन को बुलाकर पूछा, ‘क्या तुम एक्टिंग करना चाहते हो?’… ना कहने का सवाल ही कहां उठता था?... सो तुरंत ही उनका स्क्रीन टेस्ट हुआ और उस टेस्ट में सफल भी हुए।

इसके बाद मोहन सिन्हा ने अगला सवाल दागा, ‘क्या करते हो?’ झट से जवाब तैयार था, ‘आपके स्टूडियो में रिफ्लेक्टर संभालता हूं’। 

अगला सवाल, ‘कुछ गा सकते हो क्या?’ जवाब में पंजाब की अमर प्रेम कहानी ‘हीर-रांझा’ की कुछ पंक्तिया सुना दी। इस तरह से रिफ्लेक्टर संभालने वाले ओंकार नाथ धर को उनकी पहली फिल्म ‘फैशनेबल इंडिया’ मिल गई।

‘जीवन’ नाम इन्होंने दिया

जीवन

फिल्मों में काम तो शुरू कर दिया था, लेकिन स्क्रीन नेम विजय भट्ट ने दिया। विजय भट्ट मशहूर निर्माता-निर्देशक-पटकथा लेखक थे। उन्होंने ‘बैजू-बावरा’, ‘हिमालय की गोद में’ समेत कई फिल्में बनाई हैं। मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक विक्रम भट्ट इनके पोते हैं।

‘खलनायकी’ में ‘कॉमेडी’

अपने करियर की शुरुआत में ही वो भांप गए थे कि उनके चेहरे में ‘हीरो’ वाली बात नहीं है। उस तरफ जाने से बेहतर अपनी एक अलग ही राह बनाई जाए। फिर वो धूर्त रिश्तेदार, कपटी सेनापति, बेईमान भाई जैसे किरदारों में जान फूंकने लगे। फिल्मकोहीनूर’ हो या ‘नया दौर’ जीवन और दिलीप कुमार की टक्कर ने अलग ही दृश्य रचा था।

उनकी एक अलग ही संवाद शैली रही है, जो हर चरित्र को एक अलग रूप देता था। अपनी खलनायिकी में ‘कॉमेडी’ का पुट डाल देते थे। जीवन साहब ने यह प्रयोग सबसे पहले साल 1948 में आई फिल्म ‘मेला’ में किया। नर्गिस और दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म में जीवन ‘महकू’ नाम के किरदार में थे।

एक इंटरव्यू में जीवन साहब ने अपनी इस विधा के बारे में कहा था कि एक तरफ तो आपको अपने चरित्र से नफरत पैदा करनी होती थी और दूसरी तरफ उन्हीं दर्शकों को अपने संवाद या मूर्खताओं से हंसाना भी पड़ता था। यह काम मुश्किल तो था, लेकिन चुनौतीपूर्ण कार्य ही आपकी क्षमताओं को परखते हैं। 

अभिनेता जीवन की ‘खलनायिकी’ में ‘कॉमेडी’ के पुट की परंपरा को कादर खान ने नया आयाम दिया फिर इसे शक्ति कपूर और परेश रावल आगे लेकर गए। 

छोटी सी भूमिका में बड़ा ‘असर’

पर्दे पर निभाए कुछ यादगार किरदार

फिल्म में अपनी छोटी उपस्थिति को भी मजबूत बना देते थे। अशोक कुमार और राजेंद्र कुमार अभिनीत साल 1960 में आई फिल्म ‘कानून’ के एक छोटे से सीन में आकर सबको स्तब्ध करने वाले जीवन ही तो थे। इस फिल्म की शुरुआत होती है कोर्ट के सीन से। जहां पूरा कोर्ट भरा है और मुल्ज़िम ‘कालिदास’ कटघरे में खड़ा है। मुल्ज़िम भरी अदालत में पूछता है, ‘मैं इस अदालत से मेरी जवानी के दो दस साल वापस मांगता हूं, जो कानून की भेंट चढ़ गए...आज मैं चिल्ला-चिल्ला कर कहती हूं कि गणपत का खून मैंने किया है और आपका कानून मुझे कोई सज़ा नहीं दे सकता।’ 

यह छोटा सा सीन ही इतना प्रभावी था कि पूरी फिल्म पर हावी रहा। इसके बाद बी आर चोपड़ा की साल 1965 में आई ‘वक़्त’ का वो छोटा सा किरदार। इस फिल्म में जीवन अनाथआश्रम के क्रूर संचालक रहते हैं, जो बात-बात में बच्चों की बेंत से पिटाई करता था। 

जब बलराज शाहनी अनाथआश्रम के संचालक बने जीवन को गला घोंटकर मारते है, तब जीवन के चेहरे पर आए हाव-भाव कितने वास्तविक लगते हैं। वैसै ही फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ के ‘हीरा’ को भी नहीं भुलाया जा सकता है। 

साल 1970 में आई फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ में जब 80 लाख के हीरे छुपाने वाले स्मगलरहीरा’ से पुलिस कमिश्नर पूछताछ करता है, तो वो अपने अपराध से अनजान बनकर सिगरेट के धुंए को बाहर निकालते हुए कहता है, ‘कमिश्नर साहब, आपको जो चार्ज लगाना हो, लगाकर छुट्टी कीजिए...फालतु अफवाहों पर बहस करने से क्या फायदा?’

ऐसे ही न जाने कितने सीन हैं, जिनको जीवन ने सिर्फ अपनी उपस्थिति से अमर बना दिया है, लेकिन एक ऐसा किरदार है, जिसके जिक्र के बिना जीवन साहब पर बात पूरी नहीं होगी।

पर्दे के ‘नारद मुनी’ से असल ‘नारद मुनी’ को भी रश्क हो जाए

बिलकुल, एक मराठी अख़ाबर ने तो लिखा भी था कि यदि सच में नारद मुनी धरती पर आएं और वो जीवन साहब के अंदाज़ में ‘नारायण-नारायण’ न बोल पाए, तो उनको जनता नारद मुनी मानने से ही इंकार कर देगी। 

हो भी क्यों न, जीवन साहब ने तकरीबन 60 से भी ज़्यादा फिल्मों में नारद मुनी का किरदार निभाया है। एक इंटरव्यू में जीवन के बेटे अभिनेता किरण कुमार ने कहा था कि नारद मुनी का किरदार निभाने के लिए मेरे पिता जी का नाम तो गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में दर्ज होना चाहिए। 

धार्मिक प्रवृत्ति के जीवन साहब शूटिंग सेट को जाते ही प्रणाम करते हैं, जैसे मंदिर की सीढ़िया चढ़ने पर किया जाता है। वक़्त के पाबंद रहे जीवन अपने आखिरी समय तक एक्टिव रहे। उनका 10 जून 1987 को निधन हो गया।

ख़ास फिल्में

उनकी फिल्में में प्रमुख हैं, ‘दिल ने फिर याद किया’, ‘आबरु’, ‘हमराज़’, ‘बंधन’, ‘भाई हो तो ऐसा’, ‘तलाश’, ‘धरम वीर’, ‘चाचा भतीजा’, ‘सुहाग’, ‘नसीब’, ‘टक्कर’, ‘मेरे हमसफ़र’, ‘डार्लिंग डार्लिंग’, ‘फुल और पत्थर’, ‘इन्तकाम’, ‘हीर रांझा’, ‘रोटी’, ‘शरीफ़ बदमाश’, ‘सबसे बडा रुपैया’, ‘गेम्बलर’, ‘याराना’, ‘प्रोफेसर प्यारेलाल’, ‘बुलंदी’, ‘सनम तेरी कसम’, ‘देशप्रेमी’, ‘सुरक्षा’ और ‘लावारिस’.....।