‘शोले’ है 'न भूतो, न भविष्यति' फिल्म
एक फिल्म, जो लोककथा सी हो गई। उसके किरदार मिथक बन गए। डायलॉग अब मुहावरों की शक्ल एख़्तियार कर चुके हैं। एक ऐसी फिल्म जिसे एक्शन फिल्मों का ‘बाप’ कहना अतिश्योक्ति न होगी। इस फिल्म को रिलीज़ हुए 42 साल हो गए। आइए मुढ़कर देखते हैं, इसे दोबारा...
मुंबई। ‘जय-वीरू’ की जैसी दोस्ती, ‘ठाकुर’ का बदला लेने का जज़्बा, खूंखार ‘गब्बर’ का खौफ़, चुलबुली ‘बसंती’ का अल्हड़पन, शांत-गुमसुम ग़मज़दा ‘राधा’ के अलावा ‘कालिया’, ‘सांबा’, ‘हरिराम नाई’, ‘सूरमा भोपाली’, ‘जेलर’ ...इन सब मसालों से सलीम-जावेद ने लिखी फिल्म ‘शोले’। रमेश सिप्पी ने इस स्क्रिप्ट को फिल्म की शक्ल दी।
15 अगस्त 1975 को रिलीज़ हुई यह फिल्म को फिल्म समीक्षकों ने सिरे से खारिज कर दिया था। इसे ‘जस्ट अनदर डकैत फिल्म’, ‘पिटी हुई फिल्म’ तक कहा था। इसके एक्शन को दोयम दर्जे का बताया, लेकिन धीमा रफ्तार से शुरू इस फिल्म में जब रफ्तार पकड़ी, तो रिकॉर्ड कामय कर ही डाला।
‘कल्ट’ भी और ‘क्लासिक’ भी
एक इंटरव्यू में शेखर कपूर ने कहा था कि हिंदी सिनेमा का कैलेंडर बनाया जाए, तो उसे दो भागों में बांटा जाएगा। पहला होगा ‘शोले’ से पहले और दूसरा ‘शोले’ के बाद। शेखर की इस बात में दम तो है, क्योंकि ‘शोले’ ने लोकप्रिय सिनेमा को एक नई दिशा दी थी।
हालांकि, इस फिल्म को भारतीय सिनेमची ‘कल्ट’ मानने को तैयार थे, लेकिन ‘क्लासिक’ के दर्ज़े में खड़ा नहीं करना चाहते थे। कुछ आलोचकों का कहना था कि फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी वजह से इसे ‘क्लासिक’ का दर्ज़ा दिया जाए।
अब इतनी कसी पटकथा वाली फिल्म, जिसमें नाटकीयता कूट-कूट कर भरी हो और जिसमें लगभग साढ़े तीन घंटे तक दर्शकों को कुर्सी से बांधे रखने की क्षमता हो, उसे क्यों न ‘क्लासिक’ कहा जाए। ख़ैर, बाद में लंबी बहस के बाद इसे ‘क्लासिक’ भी कहा जाने लगा।
धीमी शुरुआत से कल्ट बनी ‘शोले’
इस फिल्म को लेकर दिलचस्प बात यह है कि जब 15 अगस्त 1975 को यह फिल्म रिलीज़ हुई, तो समीक्षकों ने इसे खारिज कर दिया। ‘जस्ट अनदर डकैत फिल्म’, ‘पिटी हुई फिल्म’ सरीखी समीक्षा लिखी। वहीं इसके एक्शन सीक्वेंस को दोयम दर्जे का बताया और स्क्रिप्ट को बेदम कहा। यहां तक कि ‘गब्बर’ के किरदार का उल्लेख करना ज़रूरी भी नहीं समझा।
‘शोले’ की आग धीरे-धीरे ही सुलगी, लेकिन ऐसी सुलगी कि मुंबई के मिनर्वा टॉकीज़ में पूरे पांच साल तक चलती रही। फिर रमेश सिप्पी की एक फिल्म आई, और ‘शोले’ को उतारा गया। जी हां, साल 1980 में आई फिल्म ‘शान’ के लिए ‘शोले’ का मिनर्वा के पर्दे से उतारा गया। इस फिल्म में मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन थे। वहीं ‘गब्बर’ की जगह ‘शाकाल’ आए, लेकिन उस कदर छा न पाए।
साल 2005 में ‘शोले’ को 50 साल की सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म घोषित किया गया, लेकिन साल 1975 में इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार नहीं मिला। अलबत्ता, सलीम-जावेद की लिखी फिल्म, जिसमें अमिताभ बच्चन मुख्य भूमिका में थे, उसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का खिताब मिला। वो फिल्म थी ‘दीवार’।
ख़ैर, कुल मिलाकर ‘शोले’ को उस साल एक पुरस्कार मिला। वो पुरस्कार फिल्म के एडिटर एम एस शिंदे को दिया गया था। चुस्त एडिटिंग के लिए शिंदे को फिल्मफेयर का पुरस्कार मिला था।
गाने नहीं डायलॉग्स के कैसेट आए
हिंदी फिल्म इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ था कि किसी फिल्म के गानों के बजाय उसके डायलॉग्स के कैसेट बाज़ारों में आए। कहा जाता है कि उस दौर में चाय के ठेलों से लेकर पान की गुमटियों पर ‘जो डर गया, समझो वो मर गया?’, ‘कितने आदमी थे?’, ‘तेरा क्या होगा कालिया?’ जैसे डायलॉग्स ही गूंजा करते थे। वहीं यह पहली फिल्म थी, जिसके पटकथा लेखकों को सितारा हैसियत हासिल हुई थी।
यादगार किरदारों की भरमार
किसी सफल फिल्म के एक या दो किरदार ही दर्शकों के ज़ेहन में रह जाते हैं, लेकिन ‘शोले’ उन फिल्मों में से हैं, जिसके सभी किरदार दर्शकों के मन पर छपे हैं। कई कलाकरों की पहचान इस फिल्म में निभाये किरदार ही बन गए।
‘जय-वीरू’, ‘ठाकुर’, ‘गब्बर’, ‘बसंती’ और उसकी घोड़ी ‘धन्नो’ तक दर्शकों को याद रह गए। छोटी भूमिका के बाद भी ‘कालिया’, ‘सांभा’, ‘जेलर’, ‘सूरमा भोपाली’ याद हैं। कलाकारों पर यह किरदार इस तरह छाप छोड़ गए कि अगला-पिछला सब धरा रह गया और यह किरदार उनकी पहचान बन गए।
एक साक्षात्कार में ‘सांभा’ का किरदार निभाने वाले मैक मोहन ने कहा था कि भले ही कुछ मनट के लिए मैं इस फिल्म में नज़र आया हूं, लेकिन मेरी यह पहचान बन गई और मैं काफी खुश हूं।
वहीं ‘गब्बर’ बने अमज़द खान, उनके किए किरदारों में सबसे वजनी रहा। जगदीप ऐसे ‘सूरमा भोपाली’ बने की, उसके ही रह गए। लीला मिश्रा भी जगत ‘मौसी’ बन गईं। एके हंगल ‘रहीम चाचा’, तो केश्टो मुखर्जी ‘हरिराम नाई’ और असरानी ‘जेलर’ बन गए।
इस फिल्म का जादू कुछ ऐसा है कि ख़त्म नहीं होता। बातों का सिरा खुलता है, तो फिर खुलता चला जाता है। ‘शोले’ को लेकर रमेश सिप्पी को कईयों ने कहा कि तुम दूसरी ऐसी फिल्म बनाते क्यों नहीं। अब भला कैसे समझाया जाए, ऐसी फिल्में बनाई नहीं जाती, बन जाती हैं। तभी तो यह उन फिल्मों में शुमार है, जिसे ‘न भूतो, न भविष्यति’ कहा जाता है।
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