फिल्म समीक्षा: मुक्काबाज
अनुराग कश्यप उन निर्देशकों में गिने जाते हैं, जिन्हें समाज की सच्चाईयों को पर्दे पर उतारने का जुनून होता है। दर्शकों को ऐसी ही एक और कहानी दिखाने के वादे से फिल्म ‘मुक्काबाज’ के साथ वापस आए हैं। अब यह फिल्म दर्शकों को कितना लुभा पाती है और टिकट खिड़की पर कितना कमाल करती है, वो तो सप्ताहांत के बाद ही पता चल पाएगा। फिलहाल आइए करते हैं समीक्षा।
फिल्म : मुक्काबाज
निर्माता : आनंद एल राय
निर्देशक : अनुराग कश्यप
कलाकार : विनीत कुमार, जोया हुसैन, जिमी शेरगिल, रवि किशन, दीपक तलवार
संगीत : प्रशांत पिल्लई
जॉनर : स्पोर्ट्स ड्रामा
रेटिंग : 2/5
‘ब्लैक फ्राइडे’, ‘गैग्स ऑफ वासेपुर’ और ‘गुलाल’ सरीखी फिल्मों के लिए जाने जाने वाले अनुराग कश्यप एक बार फिल्म ‘मुक्काबाज’ लेकर आ गए हैं। सच की धरातल पर उपजी कहानियों को नाटकीयता से सजाने वाले अनुराग ने जब ‘बॉम्बे वेलवेट’ सरीखी डिजास्टर फिल्म बनाई, तो उनकी कड़ी आलोचना हुई। उससे उबरने के बाद एक बार फिर निर्देशक की कुर्सी संभाल चुके हैं। हालांकि, इससे पहले साल 2016 में उनकी फिल्म ‘रमन राघव 2.0’ आई थी।
कहानी
फिल्म बरेली के एक युवक श्रवण कुमार की कहानी है, जो उत्तर प्रदेश का माइक टाइसन बनना चाहता है। पढ़ाई-लिखाई में उसका बिलकुल भी मन नहीं लगता है, उसे तो सिर्फ बॉक्सिंग का नेशनल चैम्पियन बनने की ख्वाहिश ही है।
श्रवण कुमार यानी विनीत सिंह अपने सपने को सच करने के लिए बॉक्सिंग की ट्रेनिंग के लिए नेता भगवान दास मिश्रा यानी जिमी शेरगिल के जिम में जाता है। लेकिन नेता जी श्रवण को अपने जिम में ट्रेनिंग करवाने के साथ-साथ अपने निजी काम जैसे गेहूं पिसवाना, खाना बनवाना आदि करवाने लगते हैं।
इसी बीच श्रवण को नेता जी की भतीजी सुनैना यानी जोया हुसैन से प्यार हो जाता है। इनके प्यार की खबर नेता जी तक भी पहुंच जाती है।
वहीं नेशनल लेवल पर खेलने के लिए ट्रेनिंग के लिए श्रवण को बनारस जाना पड़ जाता है। यहां उसे कोच संजय कुमार यानि रवि किशन ट्रेनिंग देते हैं। श्रवण खेल की दुनिया में होने वाली चालबाजियों और राजनीति का शिकार हो जाता है। अब क्या वो उत्तर प्रदेश का माइक टाइसन बन पाता है, क्या उसे उसका प्यार मिल पाता है, यह सब जानने के लिए थिएटर जाना होगा।
समीक्षा
यह फिल्म पूरी तरह से अनुराग कश्यप की फिल्म है। निर्देशन अच्छा है। कलाकारों से अच्छा काम निकलवाने में अनुराग कामयाब हुए हैं। संवाद भी अच्छे हैं। लोकल टच यानी इलाहाबाद और बनारसी ज़बान का जायका मिलता है। हालांकि, फिल्म ज़रूरत से ज्यादा लंबी लगी। इसकी लंबाई कुछ कम की जा सकती थी।
विनीत कुमार, जिमी शेरगिल और रवि किशन ने दमदार काम किया है। वहीं जोया हुसैन का भी काम ठीक रहा।
संगीत की बात की जाए, तो बैकग्राउंड म्यूज़िंक कमाल का है। वहीं गाने ‘पैंतरा’ और ‘बहुत हुआ सम्मान...’ पहले से ही ज़बान पर हैं। कुलमिलाकर संगीत ठीक-ठाक कहा जा सकता है।
ख़ास बात
यदि आपको अनुराग कश्यप जॉनर देखे काफी दिन हो गए हैं और एक बार फिर डार्क फिल्म देखने का मन है, तो यह फिल्म आपके लिए ट्रीट हो सकती है। खेल की दुनिया में होने वाली राजनीति आपको आकर्षित करती है, तो भी आप सिनेमाहाल का रुख कर सकते हैं। लेकिन परिवार के साथ को हल्का-फुल्का सप्ताहांत बिताने का मन है, तो फिर दूसरे विकल्प भी मौजूद हैं।
संबंधित ख़बरें
‘चटनी’ के बाद ‘छुरी’ की धार दिखा रही हैं टिस्का चोपड़ा
संबंधित ख़बरें
‘चटनी’ के बाद ‘छुरी’ की धार दिखा रही हैं टिस्का चोपड़ा