फिल्म समीक्षा :अंग्रेज़ी में कहते हैं
कई बार प्रेम होना ही काफी नहीं होता है, उसे जताना भी ज़रूरी है। इसी अवधारणा को निर्देशक हरीश व्यास ने पर्दे पर उतारने की कोशिश की है। उनकी इस अवधारणा को परदे पर पूरी सजीवता से संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी एकवली खन्ना समेत कलाकारों ने उतारने की कोशिश की है। फिर आइए जानते हैं कि उनकी कोशिश किस हद तक कामयाब हुई है।
फिल्म : अंग्रेज़ी में कहते हैं
निर्माता : मैनाव मल्होत्रा, बंटी खान
निर्देशक : हरीश व्यास
कलाकार : संजय मिश्रा, एकवली खन्ना, बृजेंद्र काला, पंकज त्रिपाठी, शिवानी रघुवंशी, अंशुमान झा
संगीत : ओनीर-आदिल और रंजन शर्मा
जॉनर : फैमिली ड्रामा
रेटिंग : 4/5
शादी होने के बाद आम मध्यम वर्गीय जोड़ों में प्रेम जताना ग़ैरज़रूरी सा है। जहां आज का युवा अपनी मोहब्बत को साबित करने और महबूब को अहसास दिलाने के लिए कुछ भी कर गुज़रता है। वहीं भारतीय मध्यमवर्गीय सोच अभी-भी प्यार को चोंचला भर ही मानती है। इस सोच को परदे पर निर्देशक हरीश व्यास और उनकी जबरदस्त स्टारकास्ट ने किस बखूबी से निभाया है, आइए जानें।
कहानी
फिल्म की कहानी है बनारस में रहने वाले यशवंत बत्रा यानी संजय मिश्रा और उनकी पत्नी किरण बत्रा यानी एकवली खन्ना की। यशवंत और किरण की शादी को 25 साल बीत चुके हैं और उनकी बेटी प्रीति यानी शिवानी रघुवंशी भी जवान हो गई है। प्रीति को पड़ोस में रहने वाले लड़के जुगनू यानी अंशुमान झा से प्रेम है।
सरकारी कर्मचारी यशवंत का मानना है कि मर्द को बाहर जाकर कमाना चाहिए और औरत को घर संभालना चाहिए। अपनी 25 साल की शादी में यशवंत ने कभी भी अपनी पत्नी किरण से प्यार के मीठे बोल नहीं बोले।
वहीं परंपरावादी पिता के विपरीत प्रीति एक खुले विचारों वाली लड़की है और वो एक दिन अपनी मर्जी से पड़ोस के लड़के जुगनू से मंदिर में विवाह कर लेती है। प्रीति के विवाह के बाद किरण और यशवंत की दूरियां और बढ़ने लगती हैं। ऐसे ही एक दिन दोनों के बीच हुए झगड़े में यशवंत, किरण से कहता है कि जिस तरप प्रीति ने अपनी मनमर्ज़ी की, किरण भी उसे छोड़ कर जा सकती है। पति के रूखे व्यवहार से आहत किरण अपने मायके चली जाती है।
तभी कहानी में दो नए किरदार आते हैं, फिरोज़ यानी पंकज त्रिपाठा और सुमन यानी इप्शिता चक्रवर्ती। दोनों ने धार्मिक बंधनों को तोड़ कर शादी की, लेकिन अब सुमन जानलेवा बीमारी से जूझ रही है।
वहीं किरण के घर से जाने के बाद प्रीति और जुगनू, यशवंत को अहसास दिलाते हैं कि इन 25 सालों में कभी भी यशवंत ने किरण से प्रेम के दो मीठे बोल नहीं बोले हैं।
फिरोज़ औऱ सुमन के प्रेम से भी यशवंत सबक लेता है। अब वो खुद को बदल कर किरण को वापस अपनी ज़िंदगी में लाना चाहता है, तो फिर क्या किरण वापस आती है, या यशवंत ने देर कर दी है....इन सवालों के जवाब थिएटर में मिलेंगे।
समीक्षा
निर्देशक हरीश व्यास ने मध्यमवर्गीय पुरुष की सोच को बारीक़ी से दिखाया है, लेकिन इंटरवल के बाद कहानी कुछ फिल्मी हो जाती है। वहीं फिरोज़ और सुमन की कहानी को जल्दी समेट दिया है, इसमें विस्तार की गुंजाइश थी। आम बॉलीवुडिया फिल्मों से अलग है, लेकिन फिर भी कभी-कभी बहक जाती है।
हालांकि, फिल्म की सिमेमैटोग्राफी कमाल की है। बनारस की गलिया, गंगा का घाट। दर्शकों को बनारस में ही अपना तदात्म स्थापित करवा देता है। फारूख मिस्त्री इसके लिए तारीफ के हक़दार हैं।
अब बनारस की पृष्ठभूमि हो और अभिनेता संजय मिश्रा है, तो बनावटीपन आपको कहीं भी नज़र नहीं आएगा। संजय मिश्रा अभिनय आपको तृप्त करता है, तो वहीं पंकज त्रिपाठी का फिल्म में बोनस सा लगता है। एकवली खन्ना ने भी पूरी ईमानदारी से अपने किरदार को निभाया है। बाकी कलाकारों में शिवानी रघुवंशी, अंशुमान झा, इप्शिता चक्रवर्ती और बृजेंद्र काला अपनी भूमिकाओं में फबे हैं।
ओनीर-आदिल और रंजन शर्मा के संगीत का जादू आपके ज़ेहन पर काबिज हो जाएगा। थिएटर से निकलने के बाद अरसे तक आपके लबों पर इसके गाने बसे रहेंगे। फिल्म के ‘आंखें मेरी’, ‘आज रंग है’ और ‘पिया मोसे रूठ गए’ शानदार हैं।
ख़ास बात
अब हम ‘अंग्रेज़ी में कहते हैं’ कि आय वॉन्टेड टू से दैट इट वाज़ अ वंडरफुल मूवी, गो एंड वॉच। अब हिंदी वालों के लिए यह एक कंप्लीट एंटरटेनर मूवी है। यह मस्ट वॉच फिल्म है।