मुकम्मल कलाकार रघुबीर यादव ने तराशी अपनी राहें
रघुबीर यादव उन अभिनेताओं में से हैं, जिन्हें स्क्रीन टाइम नहीं, बल्कि दमदार किरदार से मतलब रहा है। परीक्षा में फेल होने डर से घर से भागने वाले रघुबीर का नाम ऐसे अभिनेता के रूप में दर्ज़ हो गया है, जिनकी आठ फिल्में ऑस्कर की रेस में पहुंची हैं। बनना चाहते थे गायक, लेकिन क़िस्मत में अभिनेता बनना लिखा था, लिहाजा हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को रघुबीर यादव मिल गए। आज रघुबीर यादव का जन्मदिन है। आइए पलटे उनके जीवन के पन्नों को।
मुंबई। 'चिलम', 'एडोल्फ हिटलर' 'मुगेरीलाल', 'चाचा चौधरी', 'भूरा' और 'बुधिया'...न जाने ऐसे कितने किरदारों को साकार करने वाले रघुबीर यादव आज अपना 61वां जन्मदिन मना रहे हैं।
विलक्षण अभिनेता रघुबीर यादव का जन्म 25 जून 1957 को मध्य प्रदेश के जबलपुर में हुआ। अभिनय के क्षेत्र में झंडा बुलंद करने वाले रघुबीर अक्सर कहते हैं कि अभिनय तो मेरे गले पड़ गई है। मैं तो गायक बनना चाहता था। भले ही रघुबीर अभिनय के रास्ते पर चल रहे हों, लेकिन उन्होंने संगीत का साथ नहीं छोड़ा।
कई तरह के वाद्ययंत्रों को बजाने में माहिर रघुबीर को संगीत में शांति मिलती है। अभिनय के साथ संगीत के क्षेत्र में भी वो लगातार सक्रियता बनाये रखते हैं। एक इंटरव्यू के दौरान रघुबीर ने कहा, 'मैं एक जीवन से संतुष्ट नहीं हो सकता हूं, क्योंकि मैं जो कुछ करना चाहता हूं, वो एक जीवन में संभव नहीं है।'
साल 1985 में आई फिल्म 'मैसी साहब' से अपने अभिनय करियर की शुरुआत करने वाले रघुबीर यादव हायर सेकेंडरी में फेल होने के डर से घर से भाग आए थे। उनके घर से भागने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है।
दरअसल, पांच भाई-बहनों में से दूसरे नंबर के रघुबीर गांव के ही स्कूल में पढ़ा करते थे। उनके पिता किसान थे, लिहाजा पढ़ाई के बाद पशुओं को चराना और खेत में काम करना आम बात थी। इसी दौरान उनका झुकाव संगीत की तरफ होने लगा। लेकिन पिता को बिलकुल भी पसंद न था। यहां तक कि रघुबीर को गाने-बजाने के लिए अक्सर डांट-डपट भी पड़ा करती थी।
ख़ैर ज़िंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी। रघुबीर हायर सेकेंडरी में जब रघुबीर पहुंचे, तो उनको साइंस सब्जेक्ट दिलवाया गया, जो उनको बिलकुल भी नहीं आती थी। रघुबीर कहते हैं कि मुझे कुछ समझ नहीं आता था। फिर एनुअल एग्जाम हुआ और नतीजे आने वाले थे। रघुबीर को लग रहा था कि इस बार वो फेल होने वाले हैं।
अपनी एग्जाम रिजल्ट को लेकर दुखी रघुबीर सोच ही रहे थे कि उनके गांव का एक लड़का उनके पास आया। वो लड़का, हर बार अपने पिता के जेब से पैसे निकाल कर भाग जाया करता था। इस बार उस लड़के के साथ रघुबीर भाग निकले।
जबलपुर से भाग कर ललितपुर पहुंचे, जहां उन्होंने पारसी थिएटर आया हुआ था। यहां ढाई रुपये का टिकट ख़रीद कर नाटक देखा। फिर उस लड़के साथ उसके एक रिश्तेदार के घर पहुंचे। रिश्तेदार ने सोचा इस लड़के साथ आया है, जाने कितने दिन रुकेगा। कुछ दिन बाद वो लड़का रघुबीर को रिश्तेदार के घर छोड़ कर फिर भाग निकला। अब उस रिश्तेदार ने रघुबीर से कहा कि वो तो चला गया, तुम भी जाओ।
अपने बैग को उठा कर रघुबीर सीधा पारसी थिएटर पहुंचे और काम मांगा। थिएटर के मालिक ने कहा कि तुम क्या कर सकते हो। रघुबीर का जवाब,' जी गा सकता हूं'। फिर रघुबीर ने गाना गाया। मालिक ने गाना सुनने के बाद कहा कि तुम सुर में गाते हो, लेकिन तल्लफ़ुज बहुत ख़राब है।
थिएटर मालिक से सुनते ही रघुबीर ने कहा कि तबले के साथ गाऊंगा, तो तल्लफुज सही हो जाएगा। दरअसल, रघुबीर को लगा 'तल्लफ़ुज' का तबले से कोई संबंध होता है। ख़ैर, रघुबीर का जवाब सुनकर सभी हंसने लगे। तब उनको बताया गया कि 'तल्लफ़ुज' मतलब उच्चारण होता है।
रघुबीर ने थिएटर मालिक से काम देने की गुज़ारिश की। फिर ढाई रुपये के मेहनताने पर उनको पारसी थिएटर में काम मिल गया। साल 1967 में मात्र ढाई रुपये की दिहाड़ी में रघुबरी ने पहली नौकरी शुरू की। इसी दौरान उन्होंने उर्दू लिखना, पढ़ना शुरू किया और फिर अपना 'तल्लफ़ुज' सुधारा।
अब गाने के अलावा थिएटर में उनको अभिनय करने को भी कहा गया। रघुबीर ने बेमन से इसे भी माना। थिएटर के मंच पर सिपाही बने रघुबीर को काफी शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। बाद में उन्होंने मना किया, तो कहा गया कि यदि थिएटर में नौकरी करनी है, तो यह तो करना ही होगा। छह साल तक थिएटर से जुड़े रहे। उसके बाद लखनऊ आ गया। फिर एनएसडी जॉइन किया।
रघुबीर ताउम्र थिएटर से ही जुड़े रहना चाहते थे। मॉडर्न थिएटर के पिताहम कहे जाने वाले इब्राहिम अल्काज़ी से थिएटर के गुर सीख रहे रघुबीर ताउम्र थिएटर से ही जुड़े रहना चाहते थे। वो कहते हैं कि अल्काज़ी साहब ने थिएटर डिज़ाइनिंग के हुनर को बखूबी मुझमें डाला है। मुझे लगता था, मेरी दुनिया बस यही है। उन्होंने दस साल एनएसडी की रैपटरी में नौकरी भी रघुबीर ने किया है।
फिर बदलाव 'मैसी साहब' लेकर आई। रघुबीर ने 'मैसी साहब' में फ्रांसिस मैसी का किरदार निभाया। इसके लिए रघुबीर ने दो इंटरनैशनल अवॉर्ड भी हासिल किया। हालांकि, वो फिल्मों में आने से कतराते थे, क्योंकि उनको अधिकतर फिल्मकार कॉमेडियन बनाना चाहते थे।
'मैसी साहब' के बाद 'सलाम बॉम्बे', 'धारावी', 'अर्थ' 'लगान' साहित कई फिल्मों में अपने हुनर का जौहर रघुबीर यादव ने दिखाया। इसके अलावा श्रीराम राघवन की सीरीयल किलर रमन राघव पर बनाई 70 मिनट की शॉर्ट फिल्म में 'रमन राघव' का किरदार निभाते दिखे।
टेलीविज़न की दुनिया में भी रघुबीर कभी 'मुंगेरी लाल के हसीन सपने' में दिखे, तो कभी 'मुल्ला नसरुद्दीन', 'चाचा चौधरी' और 'अर्जुन पंडित' बन कर छाए। बता दें टीवी में सबसे पहले रघुबीर 'यात्रा' में नज़र आए। यह पंद्रह एपीसोड की इस मिनी सीरीज़ को श्याम बेनेगल ने निर्देशित किया था और इला अरूण, ओमपुरी, राजेंद्र गुप्ता, नीना गुप्ता सरीखे कई नामचीन कलाकार इसमें नज़र आए थे।
33 वर्षीय करियर में रघुबीर यादव ने कई मुकाम हासिल किए हैं, लेकिन अभी-भी उनको अपने ड्रीम रोल की तलाश है। वो कहते हैं कि अभी तक वो किरदार कर नहीं पाया हूं, जिसके बाद सुकून से मर सकूं। अभी भी झटपटाहट बरकरार है। एक कलाकार के भीतर यह झटपटाहट ज़रूरी भी है।
वैसे, बता दें कि रघुबीर एक मात्र कलाकार हैं, जिनकी आठ फिल्में ऑस्कर की रेस में शामिल हुई हैं। वो फिल्में हैं- रुदाली, बैंडिट क्वीन, सलाम बॉम्बे, अर्थ, लगान, पीपली लाइव, वॉटर और न्यूटन।
हालांकि, रघुबीर इसे बात का ज्यादा तवज्जो नहीं देते हैं। उनका कहना है कि मेरा पूरा ध्यान अपना बेस्ट देने पर है। मुझे लगता है कि यदि फिल्म अच्छी है, तो लोग खुद-ब-खुद उसकी तरफ ध्यान देंगे।
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