फिल्म समीक्षा : लवयात्री
सलमान खान ने अपने होम प्रोडक्शन के तले फिल्म बनाई है, जिसका नाम है ‘लवयात्री’। इस फिल्म से उनके जीजा जी यानी अर्पिता खान के पति आयुष शर्मा का सिने करियर शुरू हो गया। साफ-साफ कहें, तो आयुष शर्मा की डेब्यू मूवी है। फिर आइए जानते हैं, कैसी बनी है फिल्म।
फिल्म : लवयात्री
निर्माता : सलमान खान
निर्देशक : अभिराज मीनावाला
कलाकार : आयुष शर्मा, वरीना हुसैन, राम कपूर, रोनित रॉय
सगीत : तनिष्क बागची
स्टार्स : 2
अब जो सबको मौका देता है, भला अपने करीबियों के मदद के लिए क्यों न आगे आएगा। लिहाजा अपनी लाड़ली बहन के पति को लेकर सलमान ने फिल्म बनी दी। इस फिल्म से तीन लोग अपने-अपने करियर का आगाज़ कर रहे हैं। पहले तो आयुष शर्मा ही हैं, साथ में वरीना हुसैन और निर्देशक अभिराज मीनावाला भी अपने निर्देशकीय पारी शुरू कर रहे हैं।
कहानी
अब कहानी गुजरात के बड़ोदरा में रहने वाले सुश्रुत (आयुष शर्मा) की है। इनको प्यार से ‘सुसु’ कहते हैं। ‘सुसु’ के जीवन का सिर्फ एक ही लक्ष्य है, गरबा इंस्टट्यूट खोलना। पढ़ाई-लिखाई से कोई खास लेना देना नहीं है। सीरीयस सिर्फ लोगों को गरबा सिखाने के समय ही होते हैं।
‘सुसु’ की ज़िंदगी में तूफान तब आता है, जब एक गरबा नाइट के दौरान उनकी नज़र ‘मिशेल’ पर पड़ती है। दरअसल, मिशेल (वरीना हुसैन) अपने पापा (रॉनित रॉय) के साथ इंडिया आई हुई हैं और नवरात्रि के बाद वो वापस लंदन लौट जाने वाली हैं। फिर भी मिशेल से सुश्रुत को प्यार हो जाता है और फिर मिशेल के लंदन जाने के बाद भी उनको पाने के लिए लंदन पहुंच जाते हैं। इस दौरान काफी ट्विस्ट एंड टर्न्स आते हैं।
अब आखिर में क्या होता है, इस कहानी का अंजाम, जानने के लिए फिल्म तो देखनी पड़ेगी।
समीक्षा
जहां एक तरफ बॉलीवुड कंटेंट बेस्ड फिल्मों की तरफ दौड़ रहा है, वहीं दूसरी तरफ सलमान के होम प्रोडक्शन में बनी यह फिल्म नब्बे के दौर में बनने वाली लवस्टोरीज़ की तरफ ले जाती है। अब यदि आप इस फिल्म में कहानी की तलाश करेंगे, तो उम्मीद भी न करें, क्योंकि फिल्म में कहानी नाम की चीज़ कहीं नज़र नहीं आती। ऐसा लग रहा है कि आयुष शर्मा को बड़े पर्दे पर उतारने की जल्दबाजी में फिल्म की कहानी पर ध्यान ही नहीं दिया गया। कमजोर कहानी तब और खलती है, जब स्क्रीनप्ले घिसा-पिटा हो। हालांकि, फिल्म का प्लॉट अच्छा था, जिस पर अच्छी कहानी बुनी जा सकती थी, लेकिन जल्दबाजी के चक्कर में गुड़-गोबर हो गया है।
इस फिल्म का निर्देशन भी काफी लचर रहा है। हालांकि, कुछ फ्रेम अच्छे बने हैं, लेकिन फिर भी वो बात निकल कर नहीं आई। फिल्म की फर्स्ट-हॉफ तो फिर भी दर्शक झेल लें, लेकिन सेकेंड हॉफ झेलते ही नहीं बनेगा।
अभिनय के मामले में भी यह फिल्म औसत रही। मुख्य किरदारों में वरीना और आयुष कई बार कोशिश करते दिख रहे हैं, लेकिन उनके चेहरों पर एक्सप्रेशन ही नहीं आ पा रहे थे। कई बार उनके चेहरे पर शून्य तैरता सा दिखता है और लगता है कि वो सामने वाले के संवाद के खत्म होने का इंतज़ार भर ही कर रहे हैं।
वहीं राम कपूर, रॉनित रॉय, प्रतीक गांधी ने अपने स्क्रीन टाइम का भरपूर इस्तेमाल किया है। फिल्म के अंत में अरबाज खान और सोहेल खान भी कुछ देर के लिए आए, वो भी ठीक ठाक लगे हैं।
इस फिल्म में सबसे अच्छी बात इसके गाने हैं। बस कुछ दिनों में नवरात्रि आने वाली है, तो गरबा पर इसके गाने खूब सुनाई देंगे। साथ ही फिल्मों को खूबसूरती से फिल्माने के लिए कॉरियोग्राफर वैभवी मर्चेंट की तारीफ बनती है।
ख़ास बात
इस फिल्म को देखकर नब्बे के दशक में आई कुछ फिल्में याद आ जाती हैं। ठीक उसी ढर्रे पर इस फिल्म को भी बनाया गया है। ऐसे में कुल मिलाकर जिनको नब्बे के दशक की फिल्में भाती हैं, वो इस फिल्म को जाकर देख सकते हैं।
संबंधित ख़बरेंआगे फिल्म समीक्षा : अंधाधुन