फिल्म ‘ठाकरे’ में नवाज़ुद्दीन के एक्सप्रेशन तो ठीक है, लेकिन जब वो डायलॉग बोलते हैं तो...
महाराष्ट्र से लेकर भारत राजनीति में भूचाल लाने वाले बाला साहेब ठाकरे की बायोपिक इस सप्ताह रिलीज़ हुई है। इसमें साल 1960 से लेकर बाबरी मस्जिद ढहाने के कुछ सालों बाद के घटनाक्रम को दिखाया गया है। फिल्म में नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी ने बाला साहेब ठाकरे की भूमिका निभाई है। क्या कुछ खास है फिल्म में आइए जानते हैं।
फिल्म : ठाकरे
निर्माता : वायाकॉम 18 मोशन पिक्चर्स
निर्देशक : अभिजीत पनसे
कलाकार : नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी, अमृता राव
संगीत : रोहन, संदीपशिरोडकर
जॉनर : बायोपिक
रेटिंग : 3/5
बतौर कार्टूनिस्ट अपने करियर की शुरुआत करने वाले बाला साहेब ठाकरे ने ‘मार्मिक’ नाम की एक पत्रिका शुरू की और फिर एक राजनैतिक दल शिवसेना का गठन भी किया।इन्हीं सब घटनाक्रमों को दिखाती फिल्म इस सप्ताह सिनेमाघरों में उतरी है। आइए करते हैं समीक्षा।
कहानी
फिल्म की कहानी शुरू होती है साल 1960 से, जब बाल केशव ठाकरे फ्री प्रेस जर्नल में बतौर कार्टूनिस्ट काम करते हैं। मनमर्ज़ी के चलते बॉस से अक्सर भिड़ंत होती है, तब वो बड़े ठाठ से ‘कलाकार हूं, गुलाम नहीं’ और ‘मैं जॉब से नहीं काम से प्यार करता’ हूं टाइप के जुमले फेंक दिया करते थे।
बाल केशव को अपने इस व्यवहार का हर्जाना नौकरी खोकर चुकाना पड़ता है। ख़ैर, नौकरी जाने के बाद सड़कों पर घूमते-घामते उनको अहसास होता है कि मराठी ज़मीन पर मराठियों को ‘सर्वेंट क्लास’ का ही काम नसीब हो रहा है।
इस बात खिन्न ठाकरे ‘कुछ करने’ की ठान लेते हैं। बाद में अपने भाई के साथ ‘मार्मिक’ नाम की मराठी पाक्षिक शुरू करते हैं, जिसे ठीक-ठाक रिस्पॉन्स मिलता है। मराठियों के दिल में एक खास जगह बनाने के बाद वो राजनैतिक दल ‘शिवसेना’ का गठन करते हैं और फिर अपनी बात मनवाने के लिए, ‘अपने’ लोगों के हक के लिए तलवार-चाकू तक का सहारा लेते हैं।
इन्हीं घटनाक्रमों में आपातकाल, 1984 के दंगे, 1993 में हुए बाबरी विध्वंस और दंगों की पृष्ठभूमि से गुजरते हुए बाला साहेब ठाकरे की कहानी सिल्वर स्क्रीन पर नज़र आती है।
समीक्षा
सबसे पहले बात करते हैं नवाज़ुद्दीन सिद्दीक़ी की। फिल्म में वो बाला साहेब के किरदार को निभा रहे हैं, जब तक नवाज़ एक्सप्रेशन देते हैं, लगता है कि बाला साहेब के समकक्ष की खड़े हैं, लेकिन जैसे ही डॉयलॉग के लिए मुंह खोलते हैं, सारा मामला ‘फुस्स’ हो जाता है।
किरदार पर अवाज़ का मेल बहुत ज़रूरी फैक्ट है, जिसमें यह फिल्म पिछड़ जाती है। वैसे मराठी में भी इस फिल्म को रिलीज़ किया गया है, जिसमें बाला साहेब की आवाज़ को चेतन शशितल ने जब किया है। यदि मराठी दर्शक हैं, तो वाकई फिल्म का मराठी वर्ज़न देखें।
कई सीन में नवाज़ पर ‘मंटो’ का हैंगोवर दिखाई देता है। बॉडी लैंग्वेज का कॉपी तो किया गया है, लिए ‘कसर’ रह गई है। वहीं फिल्म में ‘मीना ताई’ का किरदार निभा रही अमृता राव के लिए फिल्म में कुछ खास करने को नहीं था।
कई अहम घटनाक्रमों से होकर फिल्म गुजरी, लेकिन कोई भी घटना भीतर तक नहीं छू पाती। सतही तौर पर बनी सी फिल्म लगती है।
आखिर में कड़वी लेकिन सच्ची बात यह है कि यह फिल्म बाला साहेब ठाकरे के प्रति यंग जनरेशन के दिमाग़ में उपजे सवालों के जवाब देने के लिए बनाई हुई सी लगती है। सीधा-साधा मामला चुनावी फायदे लेने के लिए बाला साहेब के इमेज को भुनाने की कोशिश है।
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