फिल्म समीक्षा : आर्टिकल 15
अनुभव सिन्हा की पिछली फिल्म थी ‘मुल्क’, जिसके बाद वो एक बार फिर सोशल मैसेज से भरपूर फिल्म ‘आर्टिकल 15’ लेकर आ गए हैं। इस बार उन्होंने चॉकलेटी बॉय आयुष्मान को जबरदस्त कॉप में रूप में उतारा है। अब कैसी बनी है फिल्म, आइए जानते हैं।
निर्माता : अनुभव सिन्हा, ज़ी स्टूडियो
निर्देशक : अनुभव सिन्हा
कलाकार : आयुष्मान खुराना, ईशा तलवार, मनोज पाहवा, कुमुद मिश्रा, सयानी गुप्ता और मोहम्मद जीशान अयूब
जॉनर : क्राइम थ्रिलर
रेटिंग : 4.5/5
बॉक्स ऑफिस पर सौ फीसदी सफलता की गारंटी माने जाने वाले आयुष्मान खुराना एंग्री यंग मैन के किरदार में सुपरकॉप बन कर पर्दे पर उतरे हैं। यह अवतार उन्होंने अनुभव सिन्हा की फिल्म ‘आर्टिकल 15’ के लिए लिया है।
अनुभव ने इससे पहले ‘मुल्क’ नाम का फिल्म बनाई थी, जिसकी काफी सराहना हुई थी। इस बार वो ‘आर्टिकल 15’ के जरिये एक और संवेदनशील सब्जेक्ट लेकर आए हैं। यह फिल्म भारतीय समाज के एक कलेक्टिव फेलियर पर बात करती है।
बता दें कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15 देश में किसी भी तरह के भेदभाव को नकारता है। धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग किसी भी आधार पर भेदभाव न किया जाए। असल के धरातल पर क्या होता है, वो सबको पता है। ख़ैर, आगे बढ़ते हैं, इसी अनुच्छेद के इर्द-गिर्द बुनी गई फिल्म सिनेमाघरों में उतर चुकी है। फिर आइए करते हैं समीक्षा।
कहानी
ईमानदार आईपीएस ऑफिसर अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) का तबादला उत्तर-प्रदेश के लालगांव में होता है। अयान के लिए यह गांव कल्चर शॉक लेकर आता है। यह जगह उसे अलग सी दुनिया लगती है। तैनाती के बाद तुरंत बाद आयान को पता चलता है कि गांव से तीन लड़कियां गायब हो गई हैं। जब अयान अपने कलिग्स ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) और जाटव (कुमुद मिश्रा) का गुमशुदा लड़कियों के केस के प्रति अनमना रवैया देखता है, तब उसे आश्चर्य होता है। बाद में जब उन गुमशुदा लड़कियों की लाश को पेड़ पर लटका देखता है, तो वो परेशान हो जाता है।
इन लड़कियों का बलात्कार कर इन्हें मार दिया गया है, लेकिन गांववाले इनके लिए आवाज़ इसलिए नहीं उठाना चाहते, क्योंकि ये दोनों छोटी जाति से आती हैं। अब आयान उन लड़कियों को इंसाफ दिलाने के लिए कमर कस लेता है, लेकिन इस इंसाफ के रास्ते में जाति-पाति, ऊंच-नीच की खाईयां मिलती हैं। जाति व्यवस्था की यह गंदगी उसे अपने पुलिस स्टेशन में भी दिखाई देती है।
अब अयान कैसे उन लड़कियों को इंसाफ दिलाता है, जाति व्यवस्था के इस दलदल को पाटने के लिए क्या कुछ करता है, उसके लिए सिनेमाघर का रुख करना होगा।
समीक्षा
वैसे तो यह फिल्म डार्क सब्जेक्ट पर है, लेकिन स्क्रीनप्ले ने इसे मनोरंजक बनाया है। अच्छी स्क्रीनप्ले के लिए गौरव सोलंकी की तारीफ की जानी चाहिए। उन्होंने फिल्म को अनुभव सिन्हा के साथ अच्छा आकार दिया है। डार्क सब्जेक्ट की इस फिल्म में हास्य के पुट भी अच्छी तरह से मिलाए हैं और फिर दमदार डायलॉग्स डालकर इस फिल्म को जबरदस्त कैटेगरी में खड़ा कर दिया है।
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी इवान मुलिगन की है, जो काफी शानदार है। वहीं बैकग्राउंड म्यूजिक की कमान मंगेश धकड़े ने संभाला है, जो बेहतरीन है।
आयुष्मान खुराना की जितनी तारीफ की जाए कम है। उन्होंने एक बार फिर से अपने किरदार को दमदार तरीके से पेश किया है। वहीं मनोज पाहवा, कुमुद मिश्रा सरीखे कलाकारों ने फिल्म में चार-चांद लगा दिए हैं।
वहीं ईशा तलवार और सयानी गुप्ता का काम भी उम्दा रहा है। जीशान अयूब को छोटी लेकिन दमदार भूमिका मिली है, जिसमें वो झंडा गाड़ गए हैं।
ख़ास बात
इस फिल्म को ‘मस्ट वॉच’ की कैटेगरी में रखते हैं। हालांकि, रेग्युलर मसाला फिल्म नहीं है, लेकिन यह एक ज़रूरी फिल्म है।