फिल्म समीक्षा : ड्रीम गर्ल
एक इंटरव्यू में आयुष्मान खुराना ने खुद को ‘फारुख़ खान’ यानी शाहरुख खान और फारुख शेख को मिलाकर बना नाम। वैसे आयुष्मान के बारे में यह बात कही जा सकती है कि वो स्क्रिप्ट को लेकर जिस कदर बोल्ड है, वैसा कम ही देखने को मिलता है। इस बार वो ‘ड्रीम गर्ल’ बन कर परदे पर उतरे हैं, क्या कुछ कमाल किया है, पढ़िए फिल्म समीक्षा में।
निर्माता : एकता कपूर
निर्देशक : राज शांडिल्य
कलाकार : आयुष्मान खुराना
जॉनर : कॉमेडी ड्रामा
रेटिंग : 4/5
आयुष्मा खुराना, नाम ही काफी है। इनका नाम आते ही लगने लगा है कि ज़रूर किसी बोल्ड या दिलचस्प सब्जेक्ट पर बनी फिल्म लेकर आए हैं। अबकी बार आयुष्मान ने राज शांडिल्य से हाथ मिलाया है और बन कर तैयार हुई है ‘ड्रीम गर्ल’। राज शांडिल्य वही हैं, जो कभी कपिल शर्मा के कॉमेडी शोज़ की रीढ़ की हड्डी हुआ करते थे। ‘ड्रीम गर्ल’ उनका डायरोक्टोरियल डेब्यू है। शुरू करते हैं समीक्षा।
कहानी
यह कहानी है मथुरा के करमवीर (आयुष्मान खुराना) की, जिसके पिता जगजीत (अन्नु कपूर) की एक छोटी सी दुकान है। करमवीर, बेरोजगार है, लेकिन उसकी एक खासियत है। वह लड़की की आवाज़ निकाल लेता है। इसी वजह से उसे थिएटर के प्ले में सीता और द्रोपदी के किरदार निभाने के लिए मिल जाते हैं। यहीं नहीं बल्कि वो पूरे शहर में ‘सीता मैया’ के नाम से मशहूर भी है।
मसला यह है कि करमवीर की ज़रूरतें ज्यादा और कमाई कम है। ऐसे में नौकरी की तलाश में घूमते रहते हैं। ऐसे में उसे एक कॉल सेंटर में काम मिल जाता है, लेकिन यहां भी उनको अपनी खासियत यानी की लड़की की आवाज़ में बात करनी होती है। इस कॉल सेंटर में वो ‘पूजा’ नाम से काम करने लगते हैं।
‘पूजा’ बन कर वो कॉल पर लोगों से बात करता है और धीरे-धीरे लोग उसके प्यार में पड़ने लगते हैं। ‘पूजा’ के आशिकों की बाढ़ सी आ जाती है। कोई जान देने को तैयार है, तो कोई अपनी बीवी को छोड़ने तक को तैयार है। एक तो अपना धर्म तक बदलने को तैयार हो जाता है।
इतने पर तो मामला चल ही रहा था, लेकिन करमवीर की जिंदगी में माही (नुसरत भरूचा) की एंट्री होती है, जिससे करमवीर को प्यार हो जाता है। यहीं से शुरुआत होती है ड्रामे की। करमवीर के पर्सनल लाइफ और प्रोफेशनल लाइफ के झोल शुरू हो जाते हैं। कैसे सुलझता है मामला, क्या होती है ‘ड्रीम गर्ल’ की दास्तां, फिल्म देखिए और खुद जान जाइए।
समीक्षा
फिल्म की स्क्रिप्टिंग ज़ोरदार रही है। पंच-दर-पंच आपको कभी गुदगुदाएंगे, तो कभी पेट पकड़ कर हंसने पर मजबूर कर देंगे।
राज शांडिल्य को स्टेंडिंग ओवेशन मिलना चाहिए, क्योंकि न सिर्फ उन्होंने बेहतरीन स्क्रिप्ट राइटिंग और पंच से भरपूर डायलॉग्स लिखे हैं, बल्कि दमदार निर्देशन भी किया है। उनकी राइटिंग काफी रिफ्रेशिंग और दिलचस्प है।
एक्टिंग के मामले में आप आयुष्मान से जितनी उम्मीदें लेकर जाएंगे, यक़ीन मानिए सभी पर उनको खरा ही पाएंगे। उनकी आवाज़, बॉडी लैंग्वेज सबकुछ बेमिसाल है।
आयुष्मान के बाद फिल्म में अन्नु कपूर की तारीफ बनती है। दमदार अभिनेता। किरदार में किस कदर उतरा जाता है। ख़ासतौर पर उर्दू से दो-दो हाथ करते उनके सीन्स, मज़ा बांध देते हैं।
विजय राज के बारे में क्या ही कहा जाए। हमेशा की तरह मज़दार रहे हैं और उनकी शायरी ने तो दिल ही जीत लिया।
नुसरत भरुचा का कुछ ख़ास काम था नहीं, लेकिन वो भी ठीक-ठाक लगीं। बाकी के कलकार अभिषेक बैनर्जी, निधि बिष्ट, राजेश शर्मा, राज भंसाली, मनजोत सिंह भी अच्छे रहे।
संगीत के मामले में फिल्म उतनी कुछ खास नहीं रही। कुछेक गाने जैसे ‘राधे-राधे’ या ‘इक मुलाकात’ और ‘दिल का टेलीफोन’ अच्छा रहा। मराठी गाना ‘ढगाला लागली कळ’ प्रमोशन में तो खूब इस्तेमाल हुआ, लेकिन आपको यह फिल्म में देखने को नहीं मिलेगा।
ख़ास बात
आयुष्मान खुराना के फैन है और आपको हंसी-गुदगुदाती लीक से हटकर फिल्में देखना अच्छा लगता है, तो फिर जाइए और एंजॉय कीजिए। इस वीकेंड राज शांडिल्य ने हंसाने का इंतज़ाम कर रखा है।