Birthday Special: फारुख़ शेख के दमदार किरदार

हिन्दी सिनेमा के बहुमुखी प्रतिभा के धनी फारुख़ शेख की आज सालिगरह है। फिल्मों से लेकर थिएटर, टीवी होस्ट से लेकर रेडियो अनाउंसर सब तरफ अपनी एक ख़ास छाप छोड़ने वाले फारुख भले ही अब हमारे बीच न हों, लेकिन उनकी फिल्में और किरदार हमेशा उनकी विरासत बन कर हमारे साथ रहेंगी। यूं तो कई फिल्मों में उन्होंने अपनी अदाकारी के जौहर दिखाएं हैं, लेकिन कुछ ऐसी फिल्में और उनके किरदार हैं, जो सिनेप्रेमियों के लिए बेहद ख़ास हैं। आज उन किरदारों की कहानी जानते हैं।

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फारुख़ शेख का नाम आते ही आंखों के सामने मोहक मुस्कान वाले, सादे और संजीदा अभिनेता की छवि उभर आती है। यह अभिनेता हिन्दी सिने जगत में एक ख़ास मुकाम रखता है। इन्होंने जिस सादगी से फिल्मों में अपने किरदार को जिया है, उसे ही तो एफर्टलेस कहा जाता है। बिलकुल फारुख़ शेख एफर्टलेस एक्टिंग के महारथी थे। 

सूरत के जमींदार परिवार में 25 मार्च 1948 को जन्में फारुख़ शेख के पिता वकील थे और उनकी चाहत थी कि बेटा भी वकील ही बने। अब पिता की ख़्वाहिश पूरी करने के लिए वकालत की डिग्री ले तो ली, लेकिन इस पेशे में उनसे रहा न गया। क्रिकेट के शौकीन फारुख़ शेख क्रिकेटर सुनील गावस्कर से काफी करीब थे। अच्छा क्रिकेट खेलते थे, लेकिन करियर तो उनको एक्टिंग में ही बनाना था। 

लिहाजा, अपने अभिनय सफर की शुरुआत उन्होंने पढ़ाई के दौरान ही थिएटर से कर दिया था। फिर साल 1973 में आई फिल्म 'गर्म हवा' से उन्होंने अपने सिने करियर की शुरुआत की। इस फिल्म में उनका रोल काफी छोटा था, लेकिन फिर भी उनको नोटिस किया गया। इसके बाद तो उन्होंने कई यादगार फिल्में दीं, जिनमें, 'उमराव जान', 'नूरी', 'कथा', 'चश्मे बद्दूर' आदि। 70-80 के बीच हिन्दी सिनेमा को बेहतरीन फिल्मों की सौगात देने के बाद फारुख़ ने फिल्मों से दूरी बना ली। 15 साल बाद उन्होंने फिल्म 'लाहौर' से वापसी की और फिर नेशनल अवॉर्ड अपने नाम किया। 

आज भी उन्हें उनकी फिल्मों और किरदारों के लिए याद किया जाता है। ऐसे में उनकी सालगिरह पर कुछ यादगार किरदारों की बात करते हैं। 

'गर्म हवा' के 'सिकंदर मिर्ज़ा'

साल 1973 में आई इस फिल्म से फारुख़ शेख ने अपने सिने करियर की शुरुआत की। इस्मत चुगताई के लिखी कहानी पर आधारित फिल्म में फारुख़ ने एक जवान छात्र की भूमिका निभायी थी, जो अपने अधिकारों के लिए लड़ता है। इस पॉलिटिकल ड्रामा फिल्म का बैकड्रॉप साल 1947 में हुआ भारत-पाक बंटवारा था। 

'गमन' का 'गुलाम हसन'

साल 1978 में आई इस फिल्म में फारुख शेख ने 'गुलाम हसन' नाम का किरदार निभाया था, जो अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए मुंबई में टैक्सी चलाता है। उत्तर प्रदेश के बदायूं से मुंबई जैसे बड़े शहर में आकर एक अच्छी ज़िंदगी के लिए 'गुलाम हसन' काफी संघर्ष करता है। फिल्म में फारुख के साथ स्मिता पाटिल भी अहम भूमिका में थीं। 

'नूरी' के 'युसूफ फकीर मोहम्मद'

साल 1979 में आई फिल्म 'नूरी' फारुख शेख के करियर में ख़ास जगह रखती है, क्योंकि इस फिल्म ने उनको फिल्म इंडस्ट्री में पहचान दिलाई। इस फिल्म में उन्होंने 'युसूफ फकीर मोहम्मद' नाम का किरदार निभाया था। फिल्म में नूरी से युसूफ को इश्क रहता है और नूरी से उसकी शादी भी तय हो जाती है, लेकिन किसी कारणवश शादी नहीं हो पाती है। फारुख़ शेख के अपोज़िट फिल्म में पूनम ढिल्लों थीं। 

'उमराव जान' के 'नवाब सुल्तान'

मुजफ्फर अली के निर्देशन में बनी फिल्म 'उमराव जान' साल 1981 में रिलीज़ हुई। यह फिल्म रेख द्वारा निभाये गए किरदार 'उमराव जान' के इर्द-गिर्द बुनी गई थी और फिल्म में फारुख़ शेख ने नवाब सुल्तान का किरदार निभाया था, जिसे 'उमराव जान' से पहली नज़र में ही प्यार हो जाता है। भले ही केंद्रीय भूमिका में रेखा रही हों, लेकिन फारुख शेख ने अपनी बॉडी लैंग्वेज और एक्टिंग से इस फिल्म में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवाई थी। फिल्म में उनके नवाबी लहजे की दर्शकों ने काफी तारीफ की थी और आज भी कई अभिनेता नवाबी चाल-ढाल को उनसे कॉपी करते हैं। 

'चश्मे बद्दूर' के 'सिद्धार्थ पराशर'

साल 1981 में सईं परांजपे की फिल्म 'चश्मे बद्दूर' आई थी, जिसमें फारुख शेख ने 'सिद्धार्थ पराशर' नाम का किरदार निभाया था। यह तीन दोस्तों की कहानी है, जो एक ही यूनिवर्सिटी में पढ़ते हैं और गर्मियों की छुट्टियों में वो किसी कारण से घर नहीं जा पाते। एक ही फ्लैट में तीनों अलग-अलग तरह से अपनी ज़िंदगी जी रहे होते हैं कि इनकी ज़िंदगी में अचानक एक लड़की आती है। और फिर तीनों के बीच कॉम्पटीशन शुरू हो जाता है। फारुख शेख के अलावा फिल्म में राकेश बेदी और रवि बसवानी थे। वहीं दीप्ति नवल वो लड़की रहती हैं, जिसके लिए तीनों दोस्तों में कॉम्पटीशन शुरू हो जाता है। 

'साथ-साथ' का 'अविनाश'

साल 1982 मेंआई फिल्म 'साथ साथ' में फारुख शेख ने 'अविनाश' नाम के एक ऐसे छात्र का किरदार निभाया था, जो समाजवादी विचारधारा का रहता है। वह अपनी जनरेशन के लोगों से इत्तेफाक नहीं रखता, ज़रूरत से ज्यादा पैसा कमाने को सही नहीं मानता। इस रोमांटिक ड्रामा फिल्म का निर्देशन रमन कुमार ने किया है। वहीं डेविड धवन के भाई दिलीप धवन ने इस फिल्म को प्रोड्यूस किया था। फारुख शेख के साथ फिल्म में दीप्ति नवल मुख्य भूमिका में थीं। 

'बाज़ार' का 'सरजू'

साल 1982 में ही एक और फिल्म आई थी, 'बाज़ार'। स्क्रिप्ट राइटर सागर सरहदी के डायरेक्शन में बनी यह फिल्म हैदराबाद के बैकड्रॉप पर बेस्ड थी। फिल्म भारत में दुल्हनों की खरीद-फरोख्त जैसे संवेदनशील मुद्दे को कुरेदती है। फारुख ने फिल्म में 'सरजू' नाम का किरदार निभाया था, जिसे 'शबनम' से प्यार करता है और उससे शादी करना चहता है, लेकिन कई तरह की दिक्कतों का सामना उसे करना पड़ता है। 'शबनम' का किरदार सुप्रिया पाठक ने निभाया था। वहीं फिल्म में नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल सरीखे कलकार भी थे।

'किसी से न कहना' का 'रमेश त्रिवेदी'

साल 1983 में आई ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'किसी से न कहना' में फारुख शेख ने 'रमेश' नाम का किरदार निभाया है। रमेश को रमोला से प्यार रहता है और उस से शादी करना चाहता है, लेकिन रमेश के पिता को घर में ऐसी बहू लाना चाहते हैं, जो अग्रेज़ी न जानती हो। अब रमोला तो काफी पढ़ी-लिखी लड़की है। अब रमोला से शादी करने के लिए रमेश, अपने पिता के दोस्त की मदद लेता है और फिर शुरू होता है एक के बाद एक झूठ का सिलसिला। कॉमेडी से भरपूर इस फिल्म को दर्शक आज भी देखना पसंद करते हैं।

'कथा' का 'वासुदेव भट्ट'

सई परांजपे के निर्देशन में बनी और साल 1983 में रिलीज़ हुई फिल्म 'कथा' में फारुख शेख ने 'वासुदेव भट्ट' नाम के गप्पी, झूठे और चालाक क़िस्स के इंसान का किरदार निभाया था। वासुदेव, अपनी सफलता की झूठी कहानियों से सबको इंप्रेस करता है। वहीं वासुदेव का दोस्त 'राजाराम' यानी नसीरुद्दीन शाह, 'संध्या' यानी दीप्ति नवल से प्यार करता है, लेकिन वो प्यार का इज़हार नहीं कर पाता। वहीं वासुदेव, संध्या को झूठी कहानियां सुनाकर अपने प्यार के जाल में फंसा लेता है। कहानी का बैकड्रॉप मुंबई की चॉल है, कहानी अंत में काफी दिलचस्प मोड़ लेती है। 

'बीवी हो तो ऐसी' का 'सूरज भंडारी'

साल 1988 में फिल्म आई थी 'बीवी हो तो ऐसी', जिसे सलमान खान की डेब्यू फिल्म भी कह सकते हैं। ख़ैर, फिल्म में फारुख शेख ने 'सूरज भंडारी' नाम के किरदार को निभाया था, जो अपनी पत्नी रेखा और मां बिंदू के बीच होने वाले तकरार में फंसता जाता है। जहां एक तरफ घर की सास अपनी बादशाहत ख़त्म नहीं होने देना चाहती, तो बहू भी सास की हिटलरशाही को ख़त्म करना चाहती है। एक बेचारे इंसान के किरदार को फारुख ने बड़ी की संजीदगी से निभाया है।

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