शशि कपूर की 'मस्ट वॉच' फिल्में, जो चर्चा में कम ही रहीं

शशि कपूर ने कमर्शियल के साथ पैरेलल सिनेमा सफलता हासिल की है। थिएटर से लेकर सिनेमा के पर्दे पर, कैमरे के सामने से लेकर कैमरे के पीछे, हर जगह कमाल काम किया है। कुछ फिल्में जिनकी काफी चर्चा हुईं, लेकिन उनकी कुछ ऐसी फिल्में भी रही, जो बेहतरीन थी, लेकिन चर्चा में नहीं रहीं। ऐसी फिल्म की फेहरिस्त आपके लिए। 

Shashi Kapoor's must watch films

शशि कपूर ने जहां 'नमक हलाल', 'सुहाग', 'दीवार' और 'शान' सरीखी कमर्शियल फिल्मों में काम किया, तो वहीं ‘विजेता’, ’36 चौरंगी लेन’,‘उत्सव’,‘जुनून’,‘कलयुग’सरीखी फिल्में बनाई। हिंदी सिनेमा के सर्वाधिक प्रतिष्ठित दादासाहेब फालके पुरस्कार से पुरस्कृत किए गए, तो भारत सरकार ने इन्हें पद्म भूषण देकर सम्मानित किया है। आज जानते हैं उनकी 'मस्ट वॉच' फिल्में...

जुनून 

रस्किन बॉन्ड की कहानी 'फ्लाइट ऑफ पिजन्स' पर बनी यह फिल्म साल 1978 में रिलीज़ हुई थी। यह फिल्म अपने वक़्त से कहीं आगे की फिल्म थी। प्यार, जुनून, मौत, और अंधे-राष्ट्रवाद से भरी कहानी। युद्ध को बेमतलब और प्रेम को सर्वोपरि बताती यह फिल्म शशि कपूर की मास्टरपीस कही जानी चाहिए। 

साल 1857 के विद्रोह के कालखंड पर आधारित इस फिल्म में शशि कपूर की जबरदस्त एक्टिंग देखने को मिलती है। किसी पागल, सनकी शख्स का किरदार निभाना आसान है, लेकिन समझदार, कर्तव्यपरायण इंसान के किरदार को निभाना उतना ही मुश्किल है। शशि कपूर ने इस फिल्म में ये असाधारण काम बेहद आसानी से कर दिखाया है। 

कलयुग

'कलयुग', शशि कपूर और श्याम बेनेगल की जोड़ी की दूसरी फिल्म थी। यह फिल्म ठीक उसी तरह की फिल्म है, जैसी प्रकाश झा की ‘राजनीति’। 'कलयुग' में राजनीतिक परिवारों की जगह उद्योगपतियों का खानदान था। शशि ने 'कर्ण' के किरदार में थे। उन्होंने 'कर्ण' के किरदार को बहुत गरिमापूर्ण ढंग से निभाया। शशि फिल्म के निर्माता भी थे और कास्टिंग में उनका बड़ा रोल था। आज भी इस फिल्म की कास्टिंग को देखने पर पाएंगे कि सभी किरदारों के लिए कलाकारों का चयन काफी समझदारी से किया गया है। 

मुहाफ़िज़ 

अनीता देसाई के बुकर प्राइज के लिए नॉमिनेटेड उपन्यास ‘In Custody’ पर आधारित फिल्म 'मुहाफ़िज़', ‘गुमनामी’ के अंधेरे में दम तोड़ते शायर और उसकी शायरी का खो चुका दस्तावेज़ है। भोपाल की एक खंडहरनुमा हवेली में एकांतवास भोग रहे शायर नूर साहब को ज़माना लगभग भुला चुका है। सिर्फ देवेन को वो याद हैं। अपने प्रिय शायर को खोजता हुआ और उसकी विरासत को संभालने की ज़िद से भरा हुआ देवेन परत दर परत नूर साहब की ज़िंदगी को खोलता रहता है। कभी हैरान रहता है, तो कभी शर्मसार होता है। एक तिरस्कृत शायर की ज़िंदगी के कितने ही रंग शशि कपूर ने आसानी से निभा दिए हैं। अपनी दो बीवियों के आपसी कलह को बर्दाश्त करता, शराबनोशी की उच्चतम लिमिट को रोज़ ही छूता और अपने माज़ी के ज़िक्र से भी बिदकता ये अज़ीम शायर उस दौर की परछाई भी नहीं बचा है, जब पसीना गुलाब था। सिर्फ देवेन ही है जो उसे याद दिलाने बार-बार आ जाता है कि उसे गुमनाम नहीं मरना है।

शशि कपूर जब फैज़ के इस शेर को कहते हैं, तो मानो, फिल्म देखने का हासिल मिल जाता है। 

'जो रुके तो कोह-ए-गिरां थे हम, जो चले तो जां से गुज़र गये,
रहे-यार हमने क़दम-क़दम, तुझे यादगार बना दिया।'

न्यू दिल्ली टाइम्स 

साल 1986 में आई फिल्म की कहानी एक ईमानदार पत्रकार की सिस्टम के खिलाफ अकेले दम पर लड़ी गई लड़ाई का लेखाजोखा है। इस फिल्म के बारे में बहुत कम से भी कम लोगों ने सुना होगा, लेकिन इस बात से इस फिल्म की कीमत कम नहीं हो जाती। मीडिया, राजनीति और मीडिया में राजनीति पर बहुत ही बोल्ड टेक थी। आज के दौर में यह फिल्म मौजूं है। 

धर्मपुत्र 

साल 1961 में रिलीज़ हुई फिल्म 'धर्मपुत्र' एक ऐसे लड़के की कहानी है, जो एक मुस्लिम मां का बेटा है, लेकिन उसकी परवरिश हिन्दू परिवार में होती है। अब वह एक कट्टर हिंदू बन चुका है। मुसलमानों से घनघोर नफरत करता है। फिर एक दिन ये राज़ खुलता है कि जिन लोगों के लिए नफरत का लावा दिल में लिए घूमता है, वो खुद उन्हीं में से एक है। यह राज उसे मानसिक रूप से तोड़ देता है। अपनी असल पहचान उजागर होने के बाद उसकी दुनिया पूरी तरह उलट जाती है। इस फिल्म का सबसे सशक्त पक्ष था इसके लिखे डायलॉग। अख्तर-उल-इमान के लिखे कुछ एक डायलॉग आज भी प्रासंगिक हैं।