सत्यजीत रे का सिनेमा देखे बिना रहना, वैसा ही जैसे चांद-सूरज को देखे बिना संसार में रहना-अकीरा कुरोसोवा
सत्यजीत रे अपने समय के काफी आगे थे। 'पाथेर पांचाली', 'देवी' 'चारुलता', 'शतरंज के खिलाड़ी' सरीखी उनकी कई फिल्में साबित करती हैं कि उनकी सोच और नजरिया एक आम इनसान से काफी अलग था। कम लोग जानते हैं कि विश्व सिनेमा के पटल पर भारत का नाम दर्ज करवाने वाले यह फिल्मकार कभी किताबों के आवरण 'कवर' बनाया करते थे। आज उनके जन्मदिन पर उनसे जुड़े कुछ ऐसे ही रोचक क़िस्से आपको सुनाने जा रहे हैं।
सत्यजीत रे, नाम ही काफी है। खुद को अदना सा बांग्ला फिल्मकार कहने वाले सत्यजीत रे के सिनेमा को स्टडी की विषयवस्तु माना जाता है। विश्व के दस बेहतरीन फिल्मकारों में गिने जाने वाले सत्यजीत रे का जन्म 2 मई 1921 में हुआ था और 23 अप्रैल, 1993 में उनका निधन हो गया।
'अपु ट्रिलॉजी', 'पाथेर पांचाली', 'देवी' 'चारुलता', 'शतरंज के खिलाड़ी' हो या फिर मिस्ट्री ड्रामा फिल्म 'जोई बाबा फेलूनाथ' हो फिर रियल इंसीडेंट पर बनी 'अशनी संकेत' या फिर फेमिनिज्म पर बनी फिल्म 'महानगर'...सत्यजीत रे के फिल्मी पिटारे में सब रंग मिल जाएंगे। हालांकि, सत्यजीत रे ने कभी भी अपनी फिल्मों को ऑस्कर की दौड़ में शामिल होने के लिए नहीं भेजा। फिर भी देखिए खुद ऑस्कर उनके पास दौड़ कर आ गया।
आज सत्यजीत रे के जन्मदिन के मौके पर उनकी जुड़े कुछ रोचक क़िस्सों को आइए पढ़ते हैं।
मकान मालिक ने कमरे से निकाला
साल 1947 में कुछ युवाओं ने मिलकर कलकत्ता फिल्म सोसायटी बनायी, जिसकी बैठकों में विश्व सिनेमा से लेकर बंगाली फिल्मों पर जोरदार चर्चा होती थी। हालांकि, इस सोसायटी को विरोध का सामना करना पड़ा, क्योंकि बंगाली फिल्मकारों का मानना है कि कलकत्ता फिल्म सोसायटी बिगड़ैल युवाओं का संगठन है, जो बंगाली फिल्मों की बुराई करता है।
एक दिन हुआ यह कि इस सोसायटी के मेंबर फिल्मों को लेकर चर्चा कर रहे थे कि तभी उस मकान का मालिक आया और उसने सभी युवाओं को बाहर निकाल दिया। इनको बाहर निकालते वक्त कहा, 'तुम लोग फिल्मी लोग हो और मेरे घर की पवित्रता खराब कर रहे हो।' इस सोसायटी के एक सदस्य का नाम सत्यजीत रे था, जिन्होंने आगे चल कर विश्व सिनेमा में भारत को पहचान दिलवाई।
'गॉडफादर' के निर्देशक थे सत्यजीत रे के मुरीद
फिल्मों के दीवानों के लिए 'द गॉडफादर' बेहतरीन कृति है, लेकिन इसी 'द गॉडफादर' के निर्देशक फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, सत्यजीत रे मुरीद थे। कोपोला ने स्वीकार किया था कि उन्होने सत्यजीत रे की फिल्मों को स्टडी किया था। उनका कहना था, 'हम भारतीय सिनेमा को रे की फिल्मों जरिये ही जानते हैं। सत्यजीत रे की फिल्म 'देवी' सिनेमैटिक माइलस्टोन है।'
वहीं जब साल 1972 में कोपोला की फिल्म ‘द गॉडफादर’ रिलीज़ हुआ, तो सत्यजीत रे ने उन्हें कलकत्ता से अमेरिका फोन किया था। फिल्म की तारीफ करते हुए कहा कि अल पचीनो इस फिल्म में उनकी खोज हैं, जबकि मार्लन ब्रांडो ने जिस तरह का काम किया है, उसे कोई छू नहीं सकता।
फिल्मों को लेकर पैनी नज़र
सत्यजीत रे ने फिल्म मेकिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं ली, उनके पास प्रकृति प्रदत्त गुण था। हालांकि, उनका कहना था कि अमेरिकन फिल्मों को देखकर उन्होंने फिल्म बनाने का हुनर सीखा। फिल्मों को लेकर सत्यजीत रे की नज़र इतनी पैनी थी कि वो हॉलीवुड फिल्म देखकर, उसे बनाने वाले स्टूडियो का नाम बता दिया करते थे। दरअसल, वे हर बड़े स्टूडियो के कुछ खास ट्रेडमार्क्स तो पहचान जाते थे। पैरामाउंट, वॉर्नर ब्रदर्स और 20थ सेंचुरी फॉक्स के बैनर तले बनी फिल्मों में भेद वो आसानी से कर लेते थे। यह करना उनको काफी पसंद था। साथ ही डायरेक्टर्स की छाप पहचानने लगे थे। जैसे जॉन फोर्ड से विलियम वाइलर या फिर फ्रैंक कापरा से जॉर्ज स्टीवन्स की फिल्ममेकिंग कैसे अलग है।
यही भेद करने की दिलचस्पी ने उनको निर्देशक बनने की राह पर लाकर खड़ा किया, क्योंकि वो समझ गए थे कि कैसे स्टूडियो, कलाकार या कहानी से भी ज्यादा फिल्म को निर्देशक की एक अहम पहचान देता है।
सत्यजीत रे की लंदन यात्रा
सत्यजीत रे को उनकी कंपनी ने स्पेशल ट्रेनिंग के लिए अप्रैल 1950 में लंदन भेजा। कंपनी मैनेजमेंट का मानना था कि ट्रेनिंग पूरी करने के बाद रे कंपनी के लिए बेहतरीन काम करेंगे। अब सत्यजीत रे पत्नी के साथ लंदन निकल गए। लंदन पहुंचने के दो-तीन दिन बाद उन्होंने विट्टोरियो डी सीका की की फिल्म ‘बाइसिकिल थीव्ज़’देखी।
दरअसल, उन दिनों सत्यजीत रे के दिमाग़ में फिल्मों को लेकर उथल-पुथल पहले से ही मची हुई थी। फिल्म 'पाथेर पांचाली' बनाने का विचार काफी समय से उनके जेहन में टहल रहा था, लेकिन 'बाइसिकिल थीव्ज़' देखने के बाद उन्होंने निर्णय किया कि वो जब फिल्म बनाएंगे, तो उसमें नेचुरल लोकेशंस पर अननोन फेसेस को ही लेंगे।
सत्यजीत रे सिनेमा को लेकर अपने थॉट्स को और क्लियर करना चाहते थे। लिहाजा अपने लंदन प्रवास के दौरान लगभग 99 फिल्में देखी और लंदन वापसी के समय उन्होंने ‘पाथेर पांचाली’ का रफ ड्राफ्ट तैयार कर लिया।
'पाथेर पांचाली' का आइडिया
सत्यजीत रे को अपनी फिल्म 'पाथेर पांचाली' का आइडिया एक बुक के कवर को डिजाइन करते समय आया। दरअसल, रे विजुलाइजर और इलस्ट्रेटर के रूप में काम करते थे, तब वो बुक के कवर डिज़ाइन किया करते थे और सिग्नेट प्रेस से जुड़े थे। इसी दौरान उनको ‘आम अंतीर भेपू’ टाइटल की एक बुक का कवर डिजाइन करने का काम आया। यह किताब बिभूतिभूषण बंधोपाध्याय के नॉवेल ‘पाथेर पांचाली’ का बच्चों के निकाला गया संस्करण थी। रे ने इस बुक का कवर बनाया और साथ में दूसरे चित्र भी बनाए। अपने इस काम के दौरान वो कहानी को पढ़ गए और इससे काफी इंप्रेस हुए और इस तरह से उनको अपनी पहली फिल्म का सब्जेक्ट मिल गया था।
'लॉम्बो छात्रो' से नाराज़ हुए प्रोफेसर, 'पाथेर पांचाली' से मान गए
यह क़िस्सा भी काफी दिलचस्प है। सत्यजीत रे की लंबाई 6 फुट 5 इंच थी। इसकी वजह से कॉलेज में एक प्रोफेसर उन्हें ‘लॉम्बो छात्रो’ (लंबा छात्र) कहकर बुलाते थे। दरअसल, कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेज़ीडेंसी कॉलेज में सत्यजीत रे ने पढ़ाई की थी। वहां उनके इंग्लिश के प्रोफेसर थे, सुबोध चंद्र सेनगुप्ता, जो काफी सम्मानित नाम थे। यही वो प्रोफेसर साहब थे, जिन्होंने रे को 'लॉम्बो छात्रो' कहना शुरू किया था।
जब सत्यजीत रे ने पढ़ाई के बाद ब्रिटिश एड एजेंसी डी.जे. कीमर में 8 रुपये महीने पर इलस्ट्रेटर की जॉब शुरू कर ली, तो प्रोफेशर सुबोध चंद्र खासे खफा हो गए। दरअसल, प्रोफेसर साहब चाहते थे कि सत्यजीत रे किसी कॉलेज या यूनिवर्सिटी में इंग्लिश के प्रोफेसर बने, क्योंकि रे अंग्रेजी में काफी अच्छे थे और उन्होंने यूनिवर्सिटी टॉप भी किया था। हालांकि, प्रोफेसर साहब की नाराजगी फिल्म 'पाथेर पांचाली' के बाद दूर हो गई। साल 1955 में सत्यजीत राय की डेब्यू फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ रिलीज होने पर प्रोफेसर सेनगुप्ता ने कहा, 'उसने मेरे मन के विपरीत जाकर आखिर सही ही किया।'
'अशनि संकेत' को देखर डॉक्टर ने किया फोन
सत्यजीत रे की साल 1973 में 'अशनि संकेत' नाम से फिल्म आई थी, जो साल 1943 में आए भीषण अकाल पर आधारित थी। इस फिल्म में एक पात्र था, जिसका नाम 'जोदी/ जादू', जिसका एक तरफ का चेहरा जला हुआ था। अब 'जोदू' को देखकर महिलाएं डर जाती थी। अब जब अकाल पड़ा, तो 'जोदू' ही एकमात्र शख्स रहता है, जिसके पास चावल है। ऐसे में वो 'चुटकी' नाम की विवाहित महिला से कहता है कि वह चावल तभी देगा, जब 'चुटकी' उसके साथ सोएगी। 'चुटकी', 'जादू' की बात मानने से वह मना कर देती है, लेकिन बाद में भूख से लाचार होकर वह 'जादू' के साथ सो जाती है।
इस फिल्म को भारत के एक जाने-माने प्लास्टिक सर्जन मुरारी मोहन मुखर्जी ने देखा, तो उनको 'जोदू' से हमदर्दी हुई और उन्होंने इसकी सर्जरी करके इसे ठीक करने का मन बना लिया। मुखर्जी चाहते थे कि 'जोदू' भी सामान्य ज़िंदगी जी सके। इसके लिए उन्होंने फिल्म 'अशनि संकेत' में मुख्य भूमिका निभाने वाले सौमित्र चैटर्जी को फोन किया और कहा कि उन्हें 'जोदू' से मिलना है और उसके चेहरे की सर्जरी करके उसका चेहरा सही करना है।
डॉक्टर मुखर्जी की इस पेशकश पर सौमित्र हंसने लगे, फिर डॉक्टर मुखर्जी से कहा, 'आपने 'जोदू' के चेहरे पर जो देखा, वो जलने के निशान नहीं थे, बल्कि ये सत्यजीत राय का कमाल था, उन्होंने उसका मेकअप ऐसा करवाया कि उसका चेहरा जला हुआ लगे।'
सोचिए, सत्यजीत रे की फिल्मों की कहानी, पटकथा और अभिनय की सब बात करते हैं, लेकिन उनकी फिल्मों में जो डिटेलिंग है, उसका कोई जवाब नहीं।
'बंगाल' से बाहर 'निरर्थक' हो जाते सत्यजीत रे
बंगाल से सत्यजीत रे का गजब का जुड़ाव था। उनका कहना था, ' मेरी जड़ें यहां यानी बंगाल में बहुत गहराई में हैं। मुझे नहीं लगता कि मैं बाहर काम करके बहुत खुश रह पाऊंगा। भारत के दूसरे हिस्सों में शायद ऐसा कर पाऊं। भाषा में भी देखूं, तो मैंने हिंदी फिल्में बनाई हैं, लेकिन मैं तब बहुत आत्मविश्वास महसूस करता हूं, जब एक बंगाली फिल्म बना रहा होता हूं।' उन्होंने कहा कहा था, 'मैं कलकत्ता के अलावा कहीं और रहने के बारे में सोच भी नहीं सकता। बॉम्बे रहने और काम करने के बारे कल्पना ही नहीं कर सकता। वहां मैं अपनी तमाम रचनात्मक ऊर्जा खो दूंगा। एकदम निरर्थक इंसान बन जाऊंगा।'
अपनी जड़ों से कुछ इस तरह जुड़े थे कि कहीं और के बारे में उनको सोचना भी बेमानी लगता था। हालांकि, उन्हें बहुत अच्छी अंग्रेजी, बोलने-जानने, वेस्टर्न पॉप कल्चर का बहुत अच्छा ज्ञान था, लेकिन विदेश में जाना या फिर कलकत्ता से बाहर जाने को वो तैयार नहीं थे।
मैं अमीर हूं-सत्यजीत रे
सत्यजीत रे की बायोग्राफी 'सत्यजीत रायः द इनर आई' के सिलसिले में जब ब्रिटिश राइटर एंड्रयू रॉबिनसन ने उनसे पूछा था, 'क्या आपने कभी चाहा था कि अमीर हो जाएं?'
इसके जवाब में उन्होंने कहा, 'मुझे लगता है मैं अमीर हूं। फिल्मों की नहीं, बल्कि अपनी राइटिंग की बदौलत मुझे पैसे की चिंता नहीं है। मैं निश्चित रूप से बॉम्बे के कलाकारों जितना धनी नहीं हूं, लेकिन मैं आराम से जी सकता हूं। मुझे बस इतना ही चाहिए। मैं अपनी इच्छा के मुताबिक किताबें और रिकॉर्ड खरीद सकता हूं।'
'अपु ट्रिलॉजी' इसलिए नहीं भेजी गई ऑस्कर
सोचिए, जिस फिल्म को देखकर जाने कितने फिल्ममेकर्स ने अपने करियर की दिशा में सोचना शुरू किया हो, जिसे देखने के बाद वेस्टर्न कंट्रीज़ ने भारतीय सिनेमा को लेकर अपनी नज़रिया बदला हो, उस फिल्म को ऑस्कर के लिए नहीं भेजा गया। इसके पीछे जो कारण है, वो उतना ही चौंकाने वाला है। दरअसल, फिल्म 'अपु ट्रिलजी' को भारत की ओर से ऑस्कर अवॉर्ड्स के लिए इसलिए नहीं भेजा गया, क्योंकि सिलेक्टर्स का कहना था कि फिल्म में भारत की गरीबी दिखाई गई है।
अब जिस फिल्ममेकर की कृति को पूरा विश्व सराहता है, उसमें नुक्स भारतीय सिलेक्टर्स ने निकाल दिया। ख़ैर, सत्यजीत रे की फिल्म तो ऑस्कर तक नहीं गई, लेकिन ऑस्कर उनतक खुद आ गया। वो अकेले भारतीय हैं, जिन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट का ऑस्कर दिया गया था, जबकि उनकी कोई फिल्म कभी किसी ऑस्कर में नॉमिनेट भी नहीं हुई थी। साल 1992 में उन्हें यह स्पेशल ऑस्कर अवॉर्ड दिया गया था। तब वे बीमार थे और कलकत्ता के बेल व्यू क्लिनिक में भर्ती थे। वहां जा नहीं सकते थे, इसलिए एकेडमी अवॉर्ड्स के सदस्य कलकत्ता आए, उन्हें अवॉर्ड दिया और एक वीडियो मैसेज लेकर गए, जिसे ऑस्कर सैरेमनी में चलाया गया और जिसे पूरी दुनिया ने देखा।
'महानगर' का वो आखिरी सीन
सत्यजीत रे की फिल्म ‘महानगर’ भारत से बाहर एक पिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई, तो वहां मौजूद फिल्म क्रिटिक ने फिल्म के आखिरी सीन की काफी तारीफ की। इस सीन में दिखाया गया कि कलकत्ता बाज़ार के आसमान की तरफ पैन होता हुआ कैमरा फुटपाथ पर लगी स्ट्रीटलाइट पर टिक जाता है। इसका सिर्फ एक ही बल्ब जल रहा है, दूसरा नहीं। फिल्म का यह आखिरी सीन है, जहां पति-पत्नी के दोनों सेंट्रल कैरेक्टर वहां से जा रहे हैं। यह दोनों ही अपनी नौकरी खो चुके हैं और सिर्फ उम्मीद है कि इस शहर में उन्हें कोई न कोई दूसरी जॉब मिल ही जाएगी।
इस सीन को लेकर क्रिटिक्स ने काफी तारीफ की। तारीफ में कहा कि कैसे स्ट्रीटलाइट में एक जला और एक बुझा बल्ब, उम्मीद और निराशा के विरोधाभासी इमोशंस को दिखा रहा है। जब सत्यजीत राय से इस पर सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा, ' मैं ऐसा कुछ नहीं दिखाना चाहता था। कलकत्ता की लाइट्स में बल्ब कई बार ऐसे ही आधे जले –आधे बुझे होते हैं, जिसका श्रेय नगर निगम को जाता है। यह तो सिर्फ संयोग की बात थी कि कैमरा ने इस अर्थपूर्ण रूपक को कैप्चर किया।'
अकीरा कुरोसावा की नज़र में सत्यजीत रे
जापान मूल के अकीरा कुरोसावा विश्व के मानतम फिल्मकारों में से एक हैं। कुरोसावा की फिल्ममेकिंग से कई दिग्गजों ने फिल्म बनाने का हुनर सीखा है। जब उनकी फिल्म ‘राशोमॉन’ साल 1952 में कलकत्ता पहुंची, तो सत्यजीत रे ने भी देखी। तीन दिन लगातार देखी। वे इससे बहुत प्रभावित हुए। कुछ दशकों के बाद इन्हीं कुरोसावा ने रे के बारे में कहा, 'मानव प्रजाति के लिए एक शांत, लेकिन बहुत गहरा प्रेम, समझ और अवलोकन उनकी फिल्म की चारित्रिक विशेषता रही है, जिसने मुझे बहुत अधिक प्रभावित किया है। मुझे लगता है कि वो फिल्म जगत के विराट व्यक्तित्व हैं, उनकी फिल्में न देखे होना, वैसा ही है जैसे बिना चांद और सूरज को देखे इस दुनिया में जीना है।'
सर रिचर्ड एडनबरो नज़र आए सत्यजीत रे की फिल्म में
साल 1982 में आई ऑस्कर विनिंग फिल्म ‘गांधी’ को बनाने वाले सर रिचर्ड एटनबरो ने सत्यजीत रे की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में काम कर चुके हैं। हैरत हुई न। दरअसल, रिचर्ड अपनी फिल्म 'गांधी' बनाने से पांच-छह साल पहले भारत आए, तब उन्होंने साल 1977 में आई सत्यजीत रे की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में एक्टिंग की। फिल्म में वो जनरल जेम्स आउट्रम की भूमिका में थे। शूटिंग के दौरान वे रे को मनिकदा कहकर पुकारते थे। सत्यजीत रे से वो काफी प्रभावित हुए थे।
सर रिचर्ड ने सत्यजीत रे के बारे में कहा था, 'मनिकदा के बारे में जो अद्वितीय बात है, वो यह कि वे फिल्ममेकिंग के इतने सारे काम खुद करते थे, जो हमेशा अलग-अलग लोग करते हैं। वह स्क्रीनप्ले लिखते हैं। वही म्यूज़िक कंपोज़ करते हैं, फिल्म को डायरेक्ट करते हैं, कैमरा ऑपरेट करते हैं, सेट की लाइटिंग में भी उनकी भूमिका होती है। अपनी फिल्म वो खुद ही एडिट करते हैं। करीब-करीब वैसे ही जैसे चैपलिन (चार्ल्स) करते थे। अपनी फिल्मों में डीटेलिंग को लेकर उनकी दीवानगी इतनी ज्यादा है कि स्क्रीन पर आपको अंत में जो भी नजर आता है, उसमें 90 परसेंट उन्हीं का डाला हुआ होता है।'
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