NATKHAT REVIEW : विद्या बालन की शॉर्ट फिल्म है 'मस्ट वॉच'
विद्या बालन की शॉर्ट फिल्म 'नटखट' का प्रीमियर जिओ मामी फिल्म फेस्टिवल में हो चुका है और इस 33 मिनट की फिल्म में 'लड़के-लड़के ही रहेंगे' वाली सोच पर करारा चोट किया है। कहानी से लेकर बुनावट और उसे पर्दे पर बेहतरीन तरीके से उतारा गया है। यह फिल्म 'मस्ट वॉच' वाली कैटगरी में है। वहीं बता दें कि हर साल मुंबई में होने वाला मामी फिल्म फेस्टिवल इस साल यूट्यूब पर हो रहा है।
निर्माता : विद्या बालन, रॉनी स्क्रूवाला
निर्देशक : शान व्यास
कलाकार : विद्या बालन, सानिका पटेल, राज अर्जुन, अतुल तिवारी, निवेदिता बौंथियाल, स्पर्श श्रीवास्तव
रेटिंग : 4/5
विद्या बालन की शॉर्ट फिल्म 'नटखट' का प्रीमियर जिओ मामी फिल्म फेस्टिवल में हो चुका है। हर साल मुंबई में होने वाला मामी फिल्म फेस्टिवल इस साल यूट्यूब पर हो रहा है। इसी में विद्या बालन की फिल्म 'नटखट' को दिखाया गया है। इस 33 मिनट की फिल्म में हमारे 'लड़के लड़के ही रहेंगे' वाली सोच पर करारा प्रहार है।
कहानी
यह कहानी 'सोनू' (सानिका पटेल) और उसकी मां 'सुरेखा' (विद्या बालन) के इर्द-गिर्द घूमती है। एक शाम सोनू अपनी मां सुरेखा से स्कूल में हुए एक वाकये का जिक्र करता है। इस वाकये में सोनू अपने कुछ दोस्तों के साथ मिल कर एक लड़की को उसकी 'हद' में रहने का सबक सिखाने के लिए कुछ ऐसा करता है, जिसे सुनने के बाद मां सुरेखा ठिठक जाती है।
दरअसल, सुरेखा घरेलू हिंसा का शिकार है और अपने बेटे की इन बातों से बेहद परेशान भी है। सोनू एक पितृसत्तात्मक परिवार में रहता है, जहां औरतों को परदे में रखा जाता है और अपनी बात रखने की आजादी नहीं है। इन बातों का असर सोनू पर होता देख, सुरेखा उसे 'बेड टाइम स्टोरीज़' सुनाते हुए, उसके भीतर एक नया-अलग नजरिया समाज को देखने का पैदा करने का फैसला करती है।
सुरेखा की कहानियों का सोनू के व्यक्तित्व पर क्या असर पड़ता है, सुरेखा किन झंझावातों से गुजरती है। इस तकरीबन आधे घंटे की फिल्म में काफी कुछ ऐसा है, जिसे देखने के बाद आप कुछ वक्त के लिए ठहर कर सोचने पर मजबूर हो जाएंगे।
समीक्षा
मुख्य रूप से फिल्म में विद्या बालन और सानिका पटेल के किरदारों पर फोकस रखा गया है। अब जहां विद्या दमदार अभिनेत्री हैं, तो वहीं नन्हीं सानिका भी किसी मायने कम नहीं हैं। उनके चेहरे के भाव मंझे हुए कलाकारों की तरह चढ़ते-उतरते दिखते हैं। इन दोनों के अलावा बाकी के कलाकार भले ही थोड़ी देर के लिए आए हों, लेकिन उन्होंने अपने काम को बेहतरीन तरीके से अजाम दिया है।
इस फिल्म का निर्देशन शान व्यास ने किया है, जबकि कहानी शान ने अनुकम्पा हर्ष के संग मिलकर लिखी है। अब जितनी खूबसूरती से फिल्म की कहानी लिखी गई है, उतनी ही उम्दा तरीके से इसे फिल्माया भी गया है। हमारे समाज में लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़, शोषण और लड़कों को मिलने वाली छूट और उनका लड़कियों को लेकर व्यवहार और सोच इस फिल्म में बखूबी दिखाने की कोशिश की गई है।
'लड़का है जाने दो', 'लड़कियां कोई किसी लड़के पर हाथ उठा सकतीं है भला?' 'मान नहीं रही तो उठवा लो', 'जब लड़कियां माने ना तो उठवा लेना चाहिए ... को', ये फिल्म के कुछ ऐसे डायलॉग्स हैं, जो हमारे समाज में व्याप्त समस्या को दिखाते हैं। इस फिल्म में टॉक्सिक मस्क्युलिनिटी, रेप कल्चर, जेंडर इनक्वालिटी, डॉमेस्टिक वायलेंस जैसे मुद्दों पर बात की गई है।
फिल्म बताती है कि बच्चे स्कूल में शिक्षक से और घर में परिवार से सीखते हैं। छोटे-से बच्चे का एक जवान लड़की का दुपट्टा खींच ले जाना और बड़े-बड़े लड़कों के बीच उसे गले में डालकर फ्लॉन्ट करना और सबका उसकी तारीफ करना, स्कूल के छोटे लड़कों का लड़कियों की चोटियां खींचना, मास्टर का हर सवाल एक लड़के से पूछना और लड़कियों को नजरअंदाज करना। यह वो बारीकियां हैं, जो इस शॉर्ट फिल्म को पॉवरफुल बनाती है।
आखिर में चलते-चलते इस फिल्म को लेकर सिर्फ एक बात। वह यह कि 33 मिनट की फिल्म काफी नहीं है। इस फिल्म को फीचर फिल्म की शक्ल में आनी चाहिए। आखिर नन्हें सोनू का अपनी मां सुरेखा की 'बेड टाइम स्टोरीज़' का क्या प्रभाव पड़ता है। छोटा सोनू, बड़ा होकर किस तरह की पर्सनॉलिटी डेवलेप करता है। मीनिंग फुल सिनेमा के रूप में इस शॉर्ट फिल्म का फुल फ्लेज्ड फिल्म के रूप में इंतज़ार रहेगा।
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